Thursday, September 3, 2015

छाप तिलक सब छीनी...!!!



जानते हो दोस्त जब तुमसे पहली बार बात हुई थी जाने क्यूँ कोई स्पेशल कनेक्ट फील हुआ था उसी दिन... एक अजीब सा खिंचाव... ऐसा जिसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता... ऐसा पहले कभी नहीं हुआ.. किसी के भी साथ... तुमसे भागने की बहुत कोशिश करी मैंने... कितने बहाने बनाये... दिल को समझाने के... पर दिल नहीं माना... तुम किसी फरिश्ते कि तरह आये मेरी ज़िंदगी में... और उसे बेहद खूबसूरत बना दिया... अपने रंगों में रँग के...

पाता है मैं कुछ कुछ तुमसी होती जा रही हूँ आजकल... और तुम मुझसे... सोचो तो हँसी भी आती है और प्यार भी... तुम इमोशनल होते जा रहे हो और मैं प्रैक्टिकल... इस रोल रिवर्सल में बड़ा मज़ा आ रहा है इन दिनों... ऐसा भी नहीं है की तुम पहले इमोशनल नहीं थे.. हाँ इतने एक्सप्रेसिव नहीं थे जितने आजकल हो रहे हो... अच्छा लगता है तुम्हारे मुँह से सुनना की तुम मुझे मिस कर रहे हो... कि फलां-फलां काम करते हुए तुम्हें मेरी याद आयी... जैसे मेरी ज़िन्दगी के हर लम्हे में तुम बसे हुए हो.. अब मैं भी शामिल होने लगी हूँ तुम्हारी ज़िन्दगी के लम्हों में...

पर आजकल ना दिन कुछ अच्छे नहीं जा रहे... एक बार फिर से हम बहुत बहस करने लगे हैं... बात बात पे... जाने क्यूँ हर कुछ टाइम बाद ज़िन्दगी में ये फेज़ वापस आ जाता है... हमें बिलकुल अच्छा नहीं लगता.. पर जितना इससे निकलने की कोशिश करो उतना ही और फँसते जाते हैं इसमें किसी दलदल की तरह... पर तुम हो मेरे साथ और मुझे भरोसा है की निकाल ही लोगे हमें इस दलदल से और ये फेज़ भी बीत जायेगा...

जानते हो इस पूरी दुनिया में सिर्फ़ एक तुम हो जो मुझे इतना रुलाते हो... इस पूरी दुनिया में सिर्फ़ एक तुम हो जिसे ये हक़ है... इस पूरी दुनिया में सिर्फ़ एक तुम हो जिसे मैं इतना प्यार करती हूँ...

रात के इस पहर तुम्हारी बड़ी याद आ रही है... मेरा कमरा मानो कोई बड़े से बाइस्कोप में तब्दील हो गया है और तुम्हारे साथ गुज़रे हर खट्टे मीठे लम्हों की रील किसी फ़िल्म के जैसे इसकी दीवारों पर चल रही है... आँखें ख़ुशी से भर आयी हैं ये सब एक बार फिर से महसूसते... दिल से ढेर सारी दुआ निकल रही है तुम्हारे लिये... तुम्हारी पेशानी चूम के वो सब तुम तक पहुँचा दी हैं... क़ुबूल करो...!

Monday, May 25, 2015

बेअदब सी पर गज़ब सी.. मनमर्ज़ियाँ...!!!




जाने क्यूँ अनप्लांड जर्नीज़ हमेशा से बहुत अट्रैक्ट करती आयी हैं हमें... कुछ कुछ मिस्टीरियस सी... बिना किसी तय परिसीमा या दायरों के... न पता हो जाना कहाँ है... न पता कि पहुंचना कब है... न ये कि कब वापस आना है... पहले से कुछ भी नहीं पता... बस मन हुआ कहीं जाने का और चल दिए... बंजारों के जैसे... कभी कभी सोचती हूँ ऐसी लॉन्ग ड्राइव्स और जर्नीज़ क्यूँ पसंद है हमें... ख़ासकर हाइवे पे बेवजह बेमकसद की यात्रा... मंज़िल से ज़्यादा रास्ते पसंद आते हैं... खुले खुले... अंतहीन...

इन आवारा सड़कों पर बेपरवाह भटकते हुए ख़ुद के बेहद करीब महसूस होता है... जैसे अपने ही वजूद का कोई खोया हुआ हिस्सा पा लिया हो... कितने ख़ूबसूरत होते हैं ये अनजान रास्ते... कहीं भी नहीं जाती फ़िर भी आपको ख़ुद तक पहुँचाती ये आवारा सड़कें... कि इनके साथ यूँ आवारा हो जाने के लिए बड़ा जिग़र चाहिए और साथ में थोड़ा पागलपन और जुनून...

बड़ा अच्छा लगता हैं इन रास्तों का हाथ थामे बस चलते चले जाना... इनसे बातें करते... इनके साथ हँसते खिलखिलते... सड़कों के किनारे खिले बंजारे फूलों की बस्तियों से ठिठोली करते... पेड़ों की आदिम गंध में ख़ुद को डुबोते.. या कभी कभी बस यूँ ही ट्रेन या बस की खिड़की से अनंत में देखते रहना जाने किन ख्यालों में डूबे हुए...

हाइवे वाली किसी चाय की टपरी पर रुकना... कुछ पल सुस्ताते हुए कुल्हड़ वाली चाय पीना.. मिट्टी की सौंधी सी ख़ुश्बू को आत्मा तक महसूसना.. आह... Bliss... ! कोई CCD, Barista, Star Bucks अपनी प्रीमियम कॉफ़ी से आत्मा को यूँ छू के बताये तो जानू...

ख़ुद के बारे में बहुत कुछ सोचने का... ख़ुद को और बेहतर जानने समझने का मौका देती हैं ये जर्नीज़... मानो किसी खुली जगह पर जाने से दिमाग़ की कितनी गिरहें खुल जाती हैं.. हमारा मानना है हर कुछ समय के बाद ऐसी कोई यात्रा बहुत ज़रूरी हो जाती है.. just to loosen yourself..

हमारा रिश्ता भी कुछ कुछ ऐसा ही है ना जान... कभी न ख़त्म होने वाली किसी अविरल यात्रा जैसा... जो हमें अन्वाइन्ड होने का... रिलैक्स होने का मौका देता है... या फिर डिस-आर्गनाइज़्ड सी किसी अनप्लांड जर्नी जैसा... बेदायरा... बेमंज़िल... खुला खुला... अनंत... !



Friday, February 27, 2015

कलाइयों से खोल दो ये नब्ज़ की तरह धड़कता वक़्त तंग करता है...


फरवरी तकरीबन बीत चुकी है... ठंड भी रुखसती की कगार पर है... बस इत्ती सी बाकी है मानो हाथ छूटने के बाद उँगलियों के पोरों पर उसका स्पर्श बाकि रह गया हो... हालाँकि सुबहें और शामें अभी भी उसके मोहपाश से आज़ाद नहीं हो पायीं हैं... हल्की सी सिहरन घुली रहती है अभी सुबहों और शामों में... कुल मिला के गुलाबी सी ठंड वाला ये मौसम बहुत ही सुहाना है... एक अजीब सी मदहोशी तारी है हवाओं में... रँग बिरंगे फूलों से घर आँगन गुलज़ार है... फिज़ाओं में प्यार की ख़ुश्बू बिखरी हुई है... "लव इज़ इन दी एयर" शायद ऐसे ही किसी मौसम के लिये कहा गया होगा... प्यार के लिये परफेक्ट वेदर... दिल खामखाँ कितने तो सपने सजाये घूमता है ऐसे में... फागुन के रंगों से चमकीले... तितली के परों से नाज़ुक... वैसे भी ये तो हमारा सबसे पसंदीदा शगल है... सबसे फेवरेट वाला...

आज यूँ ही सोच रही थी इतनी बड़ी दुनिया और अरबों लोगों के बीच कैसे ढूँढ लेता है कोई... उस एक इंसान को... जो सिर्फ़ उसी के लिये बना है... जिसके लिये वो ख़ुद बना है... दो लोग... एक दूसरे से बिलकुल अलग... एक दूसरे से एकदम अनजान... पर एक दूसरे के लिये बेहद अहम... जिगसॉ पज्ज़ल के दो हिस्सों जैसे... एक दूसरे के बिना अधूरे... क्या सच में किस्मत जैसी कोई चीज़ होती है ? या फिर सोल मेट्स कि थ्योरी वाकई सही है... जानते हो जान पाँच अरब से भी ज़्यादा लोग हैं इस धरती पर... इत्ती बड़ी दनिया में इत्ते सारे लोगों के बीच भी इस दिल ने तुम्हें ढूँढ लिया... तुम्हारे शहर में होती तो ?

यूँ तो तुम्हें कभी तुम्हारे नाम से नहीं बुलाती हूँ... पर जाने क्यूँ तुम्हारे नाम से भी इक लगाव सा है... जब कभी भी तुम्हरा नाम कहीं सुनती या पढ़ती हूँ तो एक पल के लिये ठिठक जाती हूँ... यूँ लगता है मनो तुम करीब हो... कहीं आस पास ही... उस नाम में बसे हुए... जैसे ये ही नाम परफेक्ट है तुम्हारे लिये... जैसे उस ऊपरवाले ने मेरी दुआओं भरी चिट्ठियों के जवाब में ही लिखा हो ये नाम... तुम्हारा नाम... उसके आशीर्वाद जैसा...

तुम भी सोच रहे होगे जाने क्या बड़बड़ा रही हूँ इत्ती देर से... कभी वेदर... कभी सोल मेट्स... कभी नाम... हम्म... मुद्दा दरअसल ये है जान की तुम्हें मिस कर रही हूँ... बहुत... तुमसे बात नहीं हो पाती तो तुम्हारे बारे में बात कर के ही जी को बहला लेती हूँ... कितना बिज़ी रहने लगे हो आजकल... समय ही नहीं मिलता साथ बिताने को... मिलता भी है तो जैसे छुपन छुपाई खेलता रहता है... झलक दिखा के गायब... बहुत दुष्ट हो गया है... इस बार मिलेंगे न तो इसे ख़ूब मज़ा चखाएंगे... इस वक़्त को स्टैचू बोल के भाग चलेंगे कहीं दोनों...!

Thursday, January 22, 2015

बेसबब बातों की गर्माहट से खिलते बेसाख्ता हँसी के सूरजमुखी...


- सुनो हमें क्रूज़ पे जाना है.. चलोगे ?

- क्रूज़ पे ? अचानक क्या हुआ तुम्हें ?

- अरे बताओ ना... ले चलोगे ?

- हम्म... ले चलूँगा जान... पर बताओ तो क्यूँ जाना है ?

- अरे वो ना हमें समुद्र के बीचों बीच पानी में खेलती हुई डॉल्फिन्स देखनी हैं..

- हम्म :) तो उसके लिये इत्ती दूर जाने कि क्या ज़रूरत है... टीवी ऑन करो.. डिसकवरी चैनल लगाओ और देख लो.. तुम भी ना...

- अरे नहीं और भी कुछ काम है...

- वहाँ समुन्दर के बीच में भला कौन सा काम है तुम्हें...

- हमें ना सूरज को सागर के आग़ोश में सिमटते हुए देखना है... और ये मिलन देख पानी को शर्म से सुर्ख होते भी...

- तो वो तो तुम यहाँ साहिल पे खड़े हो के भी देख सकती हो... उसके लिये क्रूज़ पे क्यूँ जाना है..

- नहीं ना... यहाँ बहुत से डिस्ट्रैक्शंस होते हैं... और यहाँ किनारे तक आते आते वो लहरों का सुर्ख रँग डायल्यूट हो जाता है... मुझे वो सुर्ख नारंगी रँग की लहरों का फोटो लेना है...

- और करोगी क्या उसका ?

- उस रँग का दुपट्टा रँगवाऊँगी एक...

- अच्छा... और ?

- और वहाँ शिप के डेक पे लेट के तारे देखने हैं तुम्हारे साथ... सारी रात... कितने चमकीले दिखते हैं ना वहाँ से तारे...

- हम्म... सो तो है... :) एक बात बताओ...

- क्या ?

- तुम्हें तो पानी से डर लगता है ना... फिर वहाँ समुद्र के बीच में कैसे जाओगी... वहाँ तो चारों तरफ़ पानी ही पानी होता है ना..

- हाँ तो.. तुम होगे ना वहाँ मेरे साथ...

- तो..

- तो ये कि तुम्हारे साथ तो वहाँ डीप सी डाइविंग भी कर सकती हूँ...

- डर नहीं लगेगा... ?

- ना... बिलकुल भी नहीं... डर तब लगता है जब तुम साथ नहीं होते... तुमसे दूर हो जाने का डर लगता है... तुमसे बिछड़ जाने का डर लगता है... तुम साथ होते हो तो सुकून रहता है... ये आखिरी साँस भी हुई तो उसे लेते वक्त तुम साथ होगे...

- तुम पागल हो पूरी...

- हाँ हाँ... पता है जानेमन... रोज़ रोज़ याद क्यूँ दिलाते हो :)

- उफ्फ़... मेरे गले कहाँ से पड़ गईं आ के तुम :)

- अब तो सारी ज़िंदगी ऐसे ही टंगी रहूँगी तुम्हारी गर्दन पे.. बेताल के जैसे... विक्रम अब तू तो गया... हू हा हा हा...

- हाहाहा... चलो अब नौटंकी... क्रूज़ के टिकट बुक करते हैं ऑनलाइन... वरना फिर जान खाओगी :)

- लव यू मेरे विक्रम :):):)

- लव यू टू मेरी बेताल :):):)




Wednesday, January 14, 2015

ये सारे रँग तेरे रँग हैं...



- क्या हो गर मैं मिकोनोज़ के सफ़ेद गिरजे जैसे घरों पे एक बड़ी सी कूंची से ढेर सारे रँग छिड़क दूँ  ?

- तो.. ज़्यादा कुछ नहीं... तुम्हें पकड़ के मारेंगे वहाँ के लोग और पुलिस के हवाले कर देंगे... बस..

- हाय क्यूँ ?? किसी की बेरंग ज़िंदगी में रँग भरना कोई जुर्म है क्या ?

- नहीं... पर किसी के साफ़ सुथरे घर को ऐसे गन्दा करना कौन सा बड़ा पुण्य काम है ? और वैसे तुम्हें ये बे-सिर-पैर के खुराफ़ाती आइडियाज़ आते कहाँ से हैं ?

- हम्म... तुम जैसा नीरस इंसान नहीं समझ पायेगा... और काहे के साफ़ सुथरे जी...

- क्यूँ... देखो कैसे बर्फ़ से सफ़ेद हैं... दूर से ही चमक रहे हैं... साथ में... नीला सागर... नीला आकाश.. नीली खिड़कियाँ... बिलकुल किसी खूबसूरत पेन्टिंग सरीखे...

- ना... हमें तो ये हमेशा सूने सूने से लगते हैं... जैसे कोई बेस कोट कर के पेंटिंग बनाना भूल गया हो... इन्हें देख कर हमेशा एक बड़े से लाइफ साइज़ कैनवस का भ्रम होता है.. और दिल करता है बस रँग डालूँ इन्हें... ढेर सारे रंगों से...

- तुम पागल हो सच में :)

- हाँ तो :) मुझे तो ना इटली का बुरानो आइलैंड पसंद है... कैसा रँग बिरंगे घरों वाला द्वीप है... यूँ लगता है मानों किसी ने रँग बिरंगे फूलों से भरा पूरा एक बगीचा तैरा दिया हो पानी में...

- हम्म... तुम्हारी तरह... रँग बिरंगा...

- मैं कोई आइलैंड हूँ क्या... एक सीधी सादी साधारण लड़की हूँ...

- तुम क्या जानो... कितने किरदार बस्ते हैं तुम में... अपने आप में एक पूरी सभ्यता हो तुम...

- वाह... और तुम... मेरे मिकोनोज़ के बेरंग शहज़ादे... :)

- हाँ... तुम मुझमें यूँ ही रँग भरती रहना... हमेशा... :)

- अच्छा... आओ एक हग करो... अभी ट्रान्सफर कर देती हूँ आज के रँग :)

- हाहाहा... पागल...!

- हाँ... तुम्हारी... :):):)



Wednesday, January 7, 2015

बारहा दिल की ज़मीं पे फूटती हैं कुछ बाँवरी ख़्वाहिशों की कोपलें...



उसकी मुस्कुराहटें एक बार फिर लौट आयीं थीं... वो फिर से महकी महकी फिरने लगी थी कोहरे ढकी वादियों में... उदासियों का मौसम जा चुका था... वो धूप सी बिखरना चाहती थी... फिर से जीना चाहती थी... खुल के.. खिल के... अपनी ज़िन्दगी के साथ ज़िन्दगी भर...

उसने एक गाँव बसाया था नदी के किनारे... एक ही से दिखने वाले ढेर सारे घरों की कतारें... सारे घर चमकीले रंगों में रंगे हुए... दूर से देखो तो यूँ लगता था गोया इन्द्रधनुष धरती पर सजा दिया हो किसी ने... नदी किनारे... अपने मूड के हिसाब से वो कभी लाल रंग के घर में रहती तो कभी नीले में... कुछ सीमे सीमे से दिनों के लिए उजला पीला घर जो उसकी सारी उदासियाँ दूर कर दे... बारिशों वाले दिन धुली धुली पत्तियों के जैसे हरे रंग वाले घर में गुज़रते... जिस रोज़ उसका दोस्त गाँव से बाहर जाता वो जामुनी रंग के घर में जा कर ख़ुद को उसकी यादों में डुबा देती... वो वापस आने को होता तो गुलाबी घर में खिली खिली घूमती उसका इंतज़ार करते...

वो ढेर सारे जुगनू पकड़ना चाहती थी.. किसी घने जंगल में जा के... उन सबको अपने घर लाना चाहती थी... उसे बड़ा अच्छा लगता था जलते बुझते जुगनुओं को देखना... किसी सियाह रात जब चाँद तारे सब छुट्टी पे हों वो उन्हें अपने आसमां पे टांकना चाहती थी... फिर सारी रात छत पे लेटे हुए अपने दोस्त से बातें करना चाहती थी... उसके पास अनगिनत बातों का खज़ाना था... कभी न ख़त्म होने वाला... वो सारा खज़ाना अपने दोस्त को सौंप देना चाहती थी... दोस्त से बातें करते रात की तारीकी को तोड़ती भोर की पहली किरण को गले लगाना चाहती थी... फिर सारे जुगनुओं को विदा कर के सोना चाहती थी दोस्त का हाथ थामे... नीले आस्मां की ओढ़नी ओढ़े...




वो जंगल से गाँव तक आती पगडण्डी के किनारे खिले जंगली फूलों से उनका नाम पूछना चाहती थी... हवा के झोंको से डोलता उन फूलों का मोहल्ला उसे बहुत आकर्षित करता था... कैसे बिना माली के भी वो हमेशा मुस्कुराते हुए ही मिलते थे... क्या जाने कौन रात में आ कर उन्हें प्यार से सहला जाता था... उनकी जड़ों को सींच जाता था.. उसे तो कभी कोई नज़र नहीं आया उस गाँव में... ज़रूर कोई दूर देस का फ़रिश्ता होगा.. आधी रात आस्मां से उतरता होगा... 



वो अलसुबह घास पर बिखरी ओस की बूँदे इकट्ठी करना चाहती थी... उसे एक छोटा सा तालाब भरना था उन बूंदों से... सुनहली मछलियों के रहने के लिए... उसे ओस की बूँद पीती मछलियाँ देखनी थीं... मुँह से मुँह जोड़ कर बातें करती हुयीं... उसे भी सुननी थी उनकी बात-चीत... उसका दिल होता मछलियों की भाषा सीख ले... फिर जब उसका दोस्त काम पर गया हो तो वो उन मछलियों के संग सारी दोपहर गप्पे लड़ाया करे...

वो ढेर सारे खत लिखना चाहती थी... रँग बिरंगी स्याहियों से... इतने कि उसके जाने के बाद भी डाकिया, ता-उम्र, रोज़ाना एक खत पहुँचाता रहे उसके दोस्त को... वो उसके लिये अपने जैसा कुछ छोड़ जाना चाहती थी... उसे दोस्त की उदासी बिलकुल नहीं पसंद थी... वो कुछ ऐसा करना चाहती थी कि दोस्त उसके जाने के बाद भी उसकी कमी ना महसूस करे... उसे गीली मिट्टी बहुत पसंद थी... उसकी सौंधी सी खुश्बू ज़िंदगी का एहसास देती थी... उससे कुछ भी गढ़ा जा सकता था... उसने अपनी कल्पना के पंखों को फैलाया और कुछ सिरजना शुरू करा...

एक मुट्ठी तुम्हारी सौम्यता 
एक चुटकी तुम सा गुस्सा भी 
थोड़ी सी मेरी खीझ 
थोड़ी अपरिपक्वता 

कुछ कतरे तुम्हारे धैर्य के 
थोड़ी मुझ सी बेसब्री 
चंद छींटे तुम्हारा इश्क़
कुछ बूँदे मेरा जुनून 

मुस्कराहट तुम्हारी 
आँखें भी तुम सी ही 
चमकीली - गहरी कत्थई ! 
रँग दोनों का मिला जुला 

गर्भ की गीली मिट्टी से 
एक नयी सृष्टि गढ़ रही हूँ इन दिनों ! 
तुझे ही जन्म दे कर इक रोज़ 
मैं नया जन्म लेना चाहती हूँ

-- ऋचा

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