Sunday, December 14, 2014

कहाँ हो मेरे सैंटा... ख़्वाहिशों ने फिर दस्तक दी है...!


आज बड़ी सारी भीगी सीली रातों के बाद एक ख़ुशनुमा दिन खिला तो सोचा यादों की गठरी खोल के उन्हें भी थोड़ी सी धूप दिखा दूँ...  बैठी बैठी यूँ ही कुछ पुराने वर्क़ पलट रही थी यादों के कि अचानक ढेर सारी मीठी मीठी ख़्वाहिशों से लबरेज़ एक विश लिस्ट पर नज़र पड़ी...  कितनी तो प्यारी प्यारी ख़्वाहिशें लिखीं थीं उसमें... मेरी तुम्हारी... याद है वो दौर कि जब हर रोज़ हम उसमें अपनी एक ख़्वाहिश जोड़ा करते थे... एक दिन मेरी बारी होती, दूसरे दिन तुम्हारी... क्या पागलपन भरे दिन थे वो भी... कितने उजले, कितने प्यारे... ख़ुशियों से छलकते... बांवरा सा ये मन हर पल जाने किस दुनिया में विचरता रहता... अपनी ही धुन में मग्न... आज भी सोचो तो मुस्कुराहट होंठों पे बेसाख़्ता तैर जाती है...

एक एक कर सारी ख़्वाहिशों को पढ़ती गई तो पाया कि लगभग सारी ही तो पूरी हो चली हैं... समय भी तो बीत गया ना कितना... तो आओ आज इस उजले दिन में मिलकर एक नयी विश लिस्ट बनाते हैं... कुछ तुम अपनी ख़्वाहिशें जोड़ो इसमें... कुछ मैं अपने ख़्वाब टाँकती हूँ... कि कुछ ख़्वाहिश, कुछ ख़्वाब बचे रहें तो ज़िन्दगी जीने की ललक भी बची रहती है... और साथ मिल कर उन ख़्वाबों,  ख़्वाहिशों को पूरा करने का उत्साह भी बचा रहता है...

ऐसे ही किसी उजले से दिन एक लॉन्ग ड्राइव पे जाना है तुम्हारे साथ... दूर बहुत दूर तलक... जहाँ धरती और आसमां मिल कर एक होने का भ्रम देते हों... साथ ना होते हुए भी एकदम करीब... एक दूसरे में घुलते हुए से... एकसार... हमारी तरह...

किसी पूरनमासी की रात किसी ऊंचे पहाड़ की चोटी से चाँद देखना है... बिलकुल साफ़ शफ़्फ़ाक... इतना बड़ा गोया किसी ने आसमां से तोड़ के सामने वाली अल्हड़ पहाड़ी के माथे पे सजा दिया हो, बिंदिया बना के... इतना पास कि हाथ बढ़ाऊँ तो छू ही लूँ उसे... उसकी चाँदनी का शॉल ओढ़े पूरी रात तुम्हारे काँधे पे सर रख के ढेर सारी बातें करनी हैं...

किसी शांत नदी के तट पे बैठ तुम्हारी बाँसुरी सुननी है, भोर की पहली किरण के साथ... जब सुरों में बदल रही होंगी तुम्हारी साँसे उस बाँस के टुकड़े से गुज़र के... मेरे वजूद में भी घुल जायेंगे सातों सुर... तुम्हारी सिम्फनी के...
याद है हमारा पसंदीदा शहर वेनिस... पानी पे तैरते किसी ख़ूबसूरत जज़ीरे सा... वहाँ की सर्पीली गलियों में घूमना है तुम्हारे साथ हाथों में हाथ डाले... गंडोला पे बैठ के पानी में उतरता शाम का सूरज देखना है... दीवार से लग कर लकड़ी की ख़ूबसूरत नक्काशीदार खिड़की तक बढ़ती पीले गुलाब की बेल के नीचे तुम्हारा माथा चूमना है... मेरी ज़िन्दगी में आने के लिये...

देखो मैंने दर्ज करा दी अपनी चंद ख़्वाहिशें अब तुम्हारी बारी... तुम भी कुछ कहो...

तुम ये ही सोच रहे हो ना कि हमारी इन बाँवरी ख़्वाहिशों को पूरा करने के लिये इतने पैसे कहाँ से लायेंगे... पर हमारी ख़्वाहिशों को पूरा करने के लिये पैसों की ज़रूरत कब से पड़ने लगी जान... भूल गये क्या... हमारी दुनिया में बस चाहतों की करेंसी चलती है... जानते हो जान मैं दुनिया की सबसे अमीर लड़की हूँ कि मेरे पास एक पूरी गुल्लक भर के तुम्हारी हँसी के सिक्के हैं...

अच्छा छोड़ो ये सब... बाकी ख़्वाहिशें जब पूरी होंगी तब होंगी... एक ख़्वाहिश अभी पूरी कर दोगे... बोलो... कैन आई गेट अ टाईट हग... राईट नाओ ???


Friday, December 5, 2014

जागते जीते हुए दूधिया कोहरे से लिपट कर, साँस लेते हुए इस कोहरे को महसूस किया है ?



सर्दियाँ हमेशा से बड़ी पसंद हैं हमें... कि थोड़ा अलसाया, थोड़ा रूमानी, थोड़ा मिस्टीरियस, थोड़ा सूफ़ियाना सा ये मौसम बिलकुल अपने जैसा लगता है...

इन सर्दियों के पहले कोहरे ने आज सुबह सवेरे दस्तक दी... अमूमन आजकल देर से ही उठाना हो रहा है... गलती हमारी नहीं है... ये कम्बख्त रज़ाइयाँ तैयार ही नहीं होती अपनी गिरफ़्त से आज़ाद करने को... ख़ैर आज सुबह उनकी तमाम कोशिशों को नाकाम कर के बरामदे में पहुँचे तो देखा नर्म शफ्फाफ़ कोहरा अपनी पुर असरार ख़ुश्बू का मलमली शॉल ओढ़े लिपटा हुआ है धरती के आग़ोश में... जैसे सदियों से बिछड़े प्रेमी मिले तो बस एक दूजे से लिपट गए सब लोक लाज छोड़ छाड़ के... कितने देर तलक उनके इस पाकीज़ा मिलन को यूँ एक टक तकती रही... सोचा के फ्रीज़ कर लूँ इन दिव्य लम्हों को मन के कैमरे में...

मेरी इस टकटकी को तोड़ा बातूनी कबूतरों के एक जोड़े ने... जाने क्या गुटर गूं  - गुटर गूं लगा रखी थी सुबह सुबह... आप बेवजह हमें बोलते हो की हम बहुत बक बक करते हैं.. देखो इन्हें... इत्ती ठंडी में भी चैन नहीं है... ज़रूर मम्मी को कोई बहाना मार के आये होंगे सुबह सुबह कि बड़ा ज़रूरी कोई काम है और यहाँ कोहरे में छुप के बातें कर रहे हैं... ख़ैर करने दो.. हमें क्या...

ये कोहरा देख के हर बार ही मन होता है कि हाथ बढ़ा के छू लूँ इसे... या फूँक कर उड़ा दूँ... ताज़ी धुनकी रुई के जैसे कोहरे के इन फाहों को... जो बैठ गए हैं हर एक चीज़ पर और सब कुछ इनके ही रंग में रंग गया है.. या चुटकी भर ये कोहरा चाय में घोल के पी जाऊँ... या फ़िर लेप लूँ अपने तन मन पर मुट्ठी भर ये मदहोश कर देने वाली गंध... के जैसे साधू कोई भस्म लगा लेता है तन पर...

जानते हो कैसे मिली इसे ये भीनी ख़ुश्बू ? कोहरे और धरती के उस पाकीज़ा मिलन से... पर तुम तो न कुछ समझते ही नहीं... याद है कितना हँसे थे तुम... इक बार जब कहा था मैंने कि मुझे इस कोहरे की ख़ुश्बू बहुत अच्छी लगती है... कितना मज़ाक बनाया था तुमने मेरा... ये कह के कि तुम पागल हो बिलकुल... कोहरे की भी भला कोई ख़ुश्बू होती है... देखो न जान आज फिर से वही महक तारी है फिज़ा में अल-सुबह से... आज फिर तुम हँस रहे हो मुझ पर...

मुझे इस कोहरे की ख़ुश्बू वाला कोई इत्र ला दो न जानां.. कि ये कोहरे वाली सर्दियाँ पूरे साल नहीं रहतीं...!


Wednesday, September 3, 2014

जैसे कोई किनारा देता हो सहारा... मुझे वो मिला किसी मोड़ पर...!



तुमसे जितना झगड़ती हूँ प्यार उतना ही बढ़ता जाता है... रोती हूँ तो सपने धुल के नये से हो जाते हैं.. कुछ और चमकीले... तुम्हारे साथ हँसती हूँ तो उन सपनों में इन्द्रधनुषी रँग भर जाते हैं... तुम्हें हँसता देखती हूँ तो उनमें जान आ जाती है... हम तीनों मिल कर जी उठते हैं फिर से... तुम.. मैं और हमारे सपने...!

तुम्हारी मुस्कुराहट को पेंट करने का दिल करता है कभी कभी... काँच सी पारदर्शी तुम्हारी आँखें... उतना चमकदार रँग बना ही नहीं जो उन्हें कैनवस पे उतार सके... कभी कभी सोचती हूँ तुम्हारी रूह को एक काला टीका लगा दूँ... कहाँ बची हैं अब इतनी पाकीज़ा रूहें धरती पर... कहाँ रह गये हैं इतने साफ़ दिल इंसान...

मैं बूढ़ी होना चाहती हूँ तुम्हारे साथ... तुम्हें देखते हुए... तुमसे झगड़ते हुए... तुम्हें प्यार करते हुए.... उम्र के उस पड़ाव पर जब घुटनों में दर्द रहा करेगा... तुम्हारे गले में बाहें डाल मैं थिरकना चाहती हूँ तुम्हारी धड़कनों की सिम्फनी पे... मैं उड़ना चाहती हूँ तुम्हारे साथ तुम्हारा हाथ पकड़ के... तब जब ये दुनिया वाले शायद हमें शक की निगाहों से ना देखें... मैं पूरी दुनिया घूमना चाहती हूँ तुम्हारे साथ... वो सारे ड्रीम डेस्टिनेशंस जहाँ जाने का सपना हमने मिल कर देखा था... क्या तुम मुझे बाइक पर बिठा के एक लॉन्ग ड्राइव पर ले चलोगे तब... मैं महसूस करना चाहती हूँ हवा को अपने बूढ़े हो चले सफ़ेद बालों में...

मैं एक छोटा सा घर बनाना चाहती हूँ... किसी पहाड़ी गाँव में... जहाँ हम दोनों बुड्ढे बुढिया मिल कर बागवानी करेंगे... जंगल से लकड़ी बिन के लायेंगे... चूल्हे में खाना बनायेंगे... कच्ची पक्की रोटियाँ सेकेंगे... प्रकृति की सुंदरता निहारेंगे... चिड़ियों को दाना खिलायेंगे और सारा दिन फ़ुर्सत से बैठ कर सिर्फ़ बातें करेंगे...

आज सुबह से ही शहर का मौसम खुशनुमा सा है... कुछ अच्छा सा करने का दिल हो रहा है... तो इस खूबसूरत से दिन उस ऊपर वाले का शुक्रिया करना चाहती हूँ... तुम्हें मेरी ज़िंदगी में लाने के लिये... तुमसे मेरी ज़िंदगी खूबसूरत है दोस्त... तुमसे ही इस ज़िंदगी को मानी मिले हैं...!

मेरे पसंदीदा गीत तुम हो... तुम्हारा पसंदीदा गीत तुम्हारे लिये...


Monday, August 18, 2014

चेसिस की तारीख अट्ठारह अगस्त उन्नीस सौ चौंतीस है !!!



आज ये चेसिस अस्सी बरस की हो गयी है... रूह अब भी ताज़ा है... दिल बच्चे सा मासूम... और लफ्ज़ जवां...!

कितना कुछ लिख चुकी हूँ तुम पर... कितनी ही बार... तुम्हारे बारे में बात करते हुए जाने कितने अनजान लोग दोस्त बने... वजह सिर्फ़ एक... तुम्हारे लिये बेपनाह प्यार और इज्ज़त... तुम्हारे बारे में बातें करना.. दोस्तों से तुम्हारी पोएट्री डिसकस करना... हमारा फेवरेट शगल बन गया है...

तुम्हें पढ़ना... तुम्हारे बारे में पढ़ना... तुम्हारे बारे में दुनिया जहान के रेडियो और टीवी इंटरव्यूज़ ढूँढ ढूँढ के सुनना देखना... ये आदत अब फितूर और जूनून की हद से आगे बढ़ कर शायद कहीं परस्तिश की देहरी तक पहुँच गयी है... जाने अनजाने तुम एक दोस्त... एक मेंटोर... बनते जा रहे हो... कितनी ही बार ज़िंदगी के फलसफों को तुम्हारी नज़्मों में तलाशा है... कितनी ही बार मेरे दर्द को तुम्हारे गीतों में पनाह मिली है... कभी किसी बड़े बुज़ुर्ग की तरह सिर सहला के तुम्हारी नज़्में रिश्तों के मायने समझा गयी हैं... कभी खलाओं में बिखरे हज़ारों करोड़ों सय्यारों को देखने का नया नज़रिया दे गयी हैं... कभी उँगली पकड़ के मेले घुमा लाती है... तुम्हारी नज़्में भी तुम्हारी तरह ही वर्सेटाइल हैं...

कभी एक मोटर गैराज में काम करते हुए तुम रंगों से खेलते थे... बिमल दा तुम्हारी उँगली पकड़ के ले आये वहाँ से तब से तुम लफ़्ज़ों से खेल रहे हो... तुम्हारे अन्दर छुपा वो आर्टिस्ट अब भी वही है.. एक्सप्रेशन का मीडियम बदल गया बस... और तुम तो वैसे भी मल्टी फैसिटेड हो... कभी एक शायर... कभी कहानीकार... कभी स्क्रीन प्ले लिखते हो कभी फ़िल्में डायरेक्ट करते हो... हर फन में माहिर... तुम्हारी आवाज़ उन चंद आवाजों में से हैं जिनसे हम बेहद मुत्तासिर हैं... जो सीधे रूह तक पहुँचती है... तुम्हारे लफ़्ज़ों की तरह... आज के दिन ज़्यादा कुछ नहीं सूझ रहा है कहने को... बस इतना ही की ये चेसिस हमेशा यूँ ही चुस्त दुरुस्त रहे... जन्मदिन मुबाराक़ को गुलज़ार साब !

जाते जाते तुम्हारे चाहने वालों के लिये तुम्हारा एक इंटरव्यू छोड़े जा रही हूँ यहाँ...



Thursday, July 10, 2014

Kumaon Diaries - Day 2


27th June 2014; Kausani to Ranikhet

सनराइज़ @ कौसानी !

जैसा की पिछली पोस्ट में बताया... कौसानी का सनराइज़ बहुत ख़ूबसूरत होता है और टूरिस्ट ख़ासकर उसे ही देखने इतनी दूर आते हैं... तो उसके लिए एक सुबह की थोड़ी सी नींद तो क़ुर्बान करी ही जा सकती थी... पहाड़ों पर सनराइज़ थोड़ा जल्दी हो जाता है सो सुबह साढ़े चार बजे का अलार्म लगा के सोये थे... सनराइज़ देखने का एक्साईटमेंट इतना की अलार्म बजने से पहले ही चार बजे नींद ख़ुद-ब-ख़ुद खुल गयी... खिड़की से झाँक के देखा तो बाहर अच्छा ख़ासा अँधेरा था... किसी तरह थोड़ा और समय काटा लेटे लेटे... डर भी था की दोबारा आँख न लग जाये... आख़िरकार साढ़े चार बजे बिस्तर छोड़ ही दिया.. हाथ मुंह धो कर और जैकेट पहन कर पहुँच गए होटल की छत पर...

आमतौर पर लोग अनासक्ति आश्रम से सनराइज़ देखते हैं पर क्यूंकि हमारे होटल की छत से ही पूरी रेंज दिखती थी सो हमारे लिए सुबह सुबह की दौड़ बज गयी.. तो बस पौने पाँच बजे कैमरा वैमरा ले के जम गए होटल की छत पे... रात भर बारिश हुई थी तो सुबह थोड़ी ठंडी थी... और बारिश का नुकसान ये हुआ की अभी तक भी बादल छाये हुए थे... हिमालय की बर्फ़ीली चोटियाँ धुंध की चादर में ढकी हुई थी... तो उन्हें देखने की उम्मीद तो खैर छोड़ ही चुके थे... फिर भी सूरज निकलने की राह देखते हुए देर तक छत पर टहलते रहे...


चूल्हे से उठता धुंआ देख के बादलों का गुमां होता रहा

पेड़ों में छुपी सर्पीली सड़कें

इसका फ़ायदा ये हुआ की घाटी में अलसाई आँखों को मसलती और अंगड़ाई लेती उनींदी सी ज़िन्दगी दिखाई दे गयी... दूर कहीं किसी घर में जलते चूल्हे से उठता धुंआ देर तलक बादलों का भ्रम दिलाता रहा... वादी में फैले सन्नाटे और कुहासे को बींधती दूर से आते किसी ट्रक की हेडलाइट... परिंदों ने भी अपने घोसले छोड़ दिए थे अब तलक और खुले आसमान में कसरत और कलाबाज़ियाँ लगा कर अपनी नींद भगा रहे थे... कोहरे में ढकी वादी देख कर वो गाना सहसा याद आ गया.. आज मैं ऊपर आसमां नीचे...

आज मैं ऊपर आसमां नीचे...!

गाना गुनगुनाते हुए सूरज चाचू को घूरा तो उन्हें भी आखिर दया आ ही गयी हमारे ऊपर और बहुत देर से छायी लालिमा को परे हटा कर लजाते हुए निकले एक बादल के पीछे से... सुन्दर दृश्य था.. पर मन में तो वो पिछली बार वाली सनराइज़ की छवि अंकित थी... दरअसल यहाँ की ख़ासियत है अपनी आखों के आगे सूरज की किरणों को एक एक कर के हिमालय की छोटी बड़ी सभी चोटियों को रंगते हुए देखना, ऐसा लगता है मानो कोई ब्रश ले कर आपके सामने पेंटिंग बना रहा हो और सोने चाँदी सी जगमगाती सुनहरी सफ़ेद चोटियाँ एक एक कर उकेरता जा रहा हो कैनवस पे... वो देखना अपने आप में एक मैजिकल एक्सपीरिएंस है... खैर इस बार किस्मत ने साथ नहीं दिया तो न सही... अगली बार मुन्सियारी से ये देखने की तमन्ना है... कुछ और क़रीब से...

बादलों से झाँकता सूरज

ख़ैर सनराइज़ देखने की रस्म पूरी हुई और एक बार फिर हम तैयार हो के करीब साढ़े नौ बजे तक होटल से चेक आउट कर के निकल गए कौसानी की सर्पीली सड़कों पर... सबसे पहले अनासक्ति आश्रम से शुरुआत करी... सन 1929 में गाँधी जी अपने भारत व्यापी दौरे पर २ दिन के लिए कौसानी आये थे पर इस जगह ने ऐसा मन मोहा की उन्होंने यहाँ क़रीब १४ दिन का समय बिताया... प्राकृतिक समानताओं की वजह से गाँधी जी ने कौसानी को "भारत का स्विट्ज़रलैंड" कहा था... अपने १४ दिन के प्रवास के दौरान गाँधी जी ने यहाँ अपनी किताब अनासक्ति योग की प्रस्तावना लिखी थी... जिस पर बाद में इस जगह का नाम अनासक्ति आश्रम रखा गया... अब इसे एक छोटे से गाँधी स्मारक का रूप दिया गया है... जिसमें गाँधी जी की बचपन से ले कर अंत समय तक की सारी फोटोग्राफ्स लगी हुई हैं... अन्दर फ़ोटो लेना मना था सो बस सब देख कर और मन में बसा कर चल दिए अगले पड़ाव की ओर... हाँ बाहर इस जगह के बारे में गाँधी जी के विचार लिखे हुए हैं... आप भी पढ़ते चलिए...




दिन का दूसरा पड़ाव था कौसानी टी गार्डन... टी गार्डन के साथ साथ वहाँ पर एक टी फैक्ट्री भी है जहाँ आप बगान से पत्ती तोड़े जाने से ले कर चाय बनने तक का पूरा प्रोसेस देख समझ सकते हैं... और साथ ही एकदम ताज़ी चाय भी टेस्ट कर सकते हैं और खरीद भी सकते हैं... हालांकि मुक्तेश्वर के रस्ते में पड़ने वाला टी प्लांटेशन पहले घूम चुके थे तो ये ज़्यादा अच्छा नहीं लगा... पर वहाँ मिलने वाली चाय अच्छी थी... सो उसे पी कर तर-ओ-ताज़ा हो कर अगले गंतव्य के लिए निकल पड़े...


एक चुस्की चाय

कौसानी से करीब बीस किलोमीटर नीचे बागेश्वर रोड पर बैजनाथ मंदिर है.. जो दरअसल गोमती नदी के तट पर बसा भगवान शिव, माँ पार्वती, श्री गणेश और सूर्य भगवान आदि को समर्पित मंदिरों का एक समूह है.. इसे कत्यूरी शासकों ने बारहवीं शताब्दी में बनवाया था... इस मंदिर की महत्ता इसलिए भी है कि हिन्दू पुराणों के अनुसार भगवान शिव और माँ पार्वती की शादी गोमती और गरुड़ गंगा के संगम पर हुई थी... पत्थरों को जोड़ के बना ये मंदिर देखने में बेहद ख़ूबसूरत लगता है... पास बहती गोमती नदी में बहुत सी मछलियाँ देखी जा सकती हैं... हालांकि रात भर हुई बारिश के कारण उस दिन नदी का पानी काफी मटमैला था और धूप तेज़ होने की वजह से मछलियाँ कम ही दिखाई दे रही थी...


बैजनाथ मंदिर

भीमशिला

इस जगह की एक और दिलचस्प विशेषता है भीमशिला... जो असल में एक गोल चिकना सा पत्थर है कोई पचास साठ किलो का... किम्विन्दंती है की भीम ने उस पत्थर पर अपना पाँव रख दिया था जिससे उसमें कुछ चमत्कारिक शक्तियाँ आ गयी थीं और इस कारण कोई भी इंसान उसे अकेले नहीं उठा सकता... पर अगर नौ लोग मिल कर अपनी तर्जनी (index finger) से उस पत्थर को उठायें नौ-नौ बोलते हुए तो वो आसानी से उठ जाता है... हमने वो पत्थर तो देखा पर उस वक़्त वहाँ नौ लोग मौजूद नहीं थे सो उसे आज़मां नहीं पाये... असल में ये फंडा सीधा सीधा सेन्टर ऑफ़ ग्रेविटी की थ्योरी से जुड़ा हुआ है.. खैर लोगों को उनकी मान्यताओं के साथ छोड़ कर हम आगे बढ़े...


खूबसूरत सीढ़ी नुमा खेत में काम करती पहाड़ी औरतें

सीढ़ी नुमा खेत
 
माँ के खेतों से लौटने का इन्तेज़ार करता घर में बंद पहाड़ी बच्चा


रास्ते में बस एक जगह खाने के लिए ब्रेक ले कर हम सीधा रानीखेत पहुँचे करीब शाम के चार बजे... होटल में चेक इन कर के थोड़ा सुस्ताये... रास्ते की थकन उतारी और करीब छः बजे फ़िर निकले रानीखेत से रू-ब-रू होने ... जो दिन का सबसे अच्छा और सुकून भरा हिस्सा होने वाला था... रानीखेत से करीब पाँच किलोमीटर आगे हैड़ाखान बाबा का आश्रम है... चारों ओर प्राकृतिक ख़ूबसूरती में घिरा शिव जी का मंदिर है यहाँ... इतना सुकून है इस जगह की बस मन करता है घंटों यही बैठे रहें और बादलों को पहाड़ों के साथ अटखेलियाँ करता देखते रहें...

हैड़ाखान बाबा आश्रम के एक विश्रामगृह की छत पर सुस्ताता कबूतर 


अगले पड़ाव पर पहुँचने की जल्दी थी सो वहाँ ज़्यादा नहीं रुके... ये अगला पड़ाव अभी तक की ट्रिप का सबसे ख़ूबसूरत पड़ाव होने वाला था... दरअसल आश्रम के लिए आते वक़्त रास्ते में एक जगह पाइन के पेड़ों का जंगल मिला... बिलकुल ऐसा जैसा सिर्फ़ फिल्मों में देखते आये थे अब तक... बेइन्तेहां ख़ूबसूरत... जहाँ तक नज़र जा रही थी सिर्फ़ पाइन के ही पेड़ छोटे बड़े... बीच में गुज़रती सर्पीली सी सड़क...

पाइन का खूबसूरत जंगल

जंगल से गुज़रती सड़क
करीब आधा पौन घंटा कब बीत गया वहाँ पता ही नहीं चला... वहाँ से वापस आने का मन तो बिलकुल नहीं था पर अँधेरा हो चला था सो वापस आना पड़ा... खाना खा के वापस होटल आये तो सोनी मैक्स पर पंचम की ७५ वीं जयंती पर स्पेशल प्रोग्राम चल रहा था... बहुत कोशिश करी उसे देखने की लेकिन नींद की जादुई झप्पी मन पे भरी पड़ गयी... एक और ख़ूबसूरत दिन मुकम्मल हुआ...!

Saturday, July 5, 2014

Kumaon Diaries - Day 1


26th June 2014; Lucknow to Kausani




अल्मोड़ा से कौसानी जाते वक़्त पाइन के ख़ूबसूरत जंगलों से गुज़रते हुए

नैनीताल हमेशा से हमारा पसंदीदा हिल स्टेशन रहा है... झील के किनारे बसा एक खूबसूरत शहर... यूँ तो तीन बार पहले भी आ चुकी हूँ यहाँ... पर दिल है की भरता ही नहीं इस जगह से... जाने मन की कौन सी डोर है जो हर बार यही अटक कर रह जाती है और बार बार हमें अपनी ओर खींच लेती है...

अब ये चौथी ट्रिप थी यहाँ की तो सोचा क्यूँ ना इस बार थोड़ा अलग रूट लिया जाये... पहले कौसानी चलते हैं... वहाँ से उतर के रानीखेत आयेंगे और सबसे आखिर में नैनीताल... तो बस ट्रिप फ़ाइनल होते ही irctc की साईट पे जम गये... भला हो रेलवे वालों का की आख़िरकार उन्हें लखनऊ काठगोदाम शताब्दी की याद आ ही गयी... एक हफ्ते के लिये चली इस ट्रेन को एक और वीक का एक्सटेंशन भी मिल गया... बस फिर क्या था टिकट बुक किये और चल दिये इस गर्मी में सुकून के चंद रोज़ बिताने के लिये...

सुबह सवा पाँच बजे की ट्रेन थी सो तीन बजे उठे... नहा धो कर तैयार हुए और सुबह पाँच बजे के करीब उमस भरी गर्मी में स्टेशन पहुँचे... प्रीमियम ट्रेन थी सो साफ़ सुथरी थी... पिछले हफ़्ते न्यूज़ पेपर में छपी ख़बरों के विपरीत रास्ते भर खाना भी ठीक ठाक ही मिला... दोपहर करीब पौने एक बजे हम काठगोदाम पहुँच गये... वहाँ से तीन दिन के लिये टैक्सी हायर करी और निकल पड़े कौसानी की ओर... ख़ूबसूरत कुमाउनी वादियों से गुज़रते हुए अपने पाँच दिन के कुमाऊं प्रवास पर...


दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत बारिश पहाड़ों पर होती है !

काठगोदाम से थोड़ा ही आगे बढ़े थे की बादल और बारिश उमड़ पड़े हमारे स्वागत में... मन की सूखी धरती पर बारिश की बूँदे पड़ते ही ऐसा सौंधा सा एहसास हुआ की क्या बतायें... सुबह तीन बजे उठ कर ट्रेन पकड़ने की थकन जैसे गायब ही हो गयी... सब एकदम से हराभरा हो गया... मानो मेघों से अमृत बरस रहा हो और हम उसे पी कर अमर हुए जाते हों...


कोसी पे बना कोई पुल

काठगोदाम से भुवाली होते हुए रास्ते का पहला पड़ाव था कैंची... यहाँ नीम करोली बाबा का बनवाया हुआ हनुमान जी का प्रसिद्ध मन्दिर है... प्राकृतिक सुंदरता के बीच स्थापित इस मन्दिर की साफ़ सफ़ाई और यहाँ का अनुशासन देखने लायक है... यहाँ मिलने वाला चने का प्रसाद हमें बड़ा पसंद है... बारिश ने यहाँ तक भी उँगली थामी हुई थी सो कैमरे को हमने सुस्ताने दिया... और ख़ुद बारिश में भीगे पाइन के पेड़ों से उठती मदहोश कर देने वाली ख़ुश्बू के खो गए... ऐसी मादक ख़ुश्बू जिसे बस महसूस किया जा सकता है... बयां नहीं...


शिखर पे बसा अल्मोड़ा किसी परी कथा के गाँव सा प्रतीत होता है

करीब पौन घंटे बाद हम अपने अगले पड़ाव अल्मोड़ा पहुँचे... ये बहुत ही शान्त और खूबसूरत पहाड़ी शहर है... हमें यहाँ ठहरना नहीं था... पर अल्मोड़ा से गुज़रें और बाल मिठाई ना लें ये तो इस खूबसूरत जगह का अपमान करने जैसा हुआ... और ऑफिस में भी सबको प्रॉमिस कर के आये थे की बाल मिठाई ले कर ही वापस आयेंगे... सो जम कर यहाँ की प्रसिद्ध बाल मिठाई और चॉकलेट मिठाई खरीदी... इतनी बार आये हैं यहाँ की इस बार तो वो मिठाई वाला भी पहचान गया हमें...

मुँह मीठा कर के थोड़ा आगे बढ़े ही थे की बारिश एक बार फिर हमसे मिलने आ गयी... और फिर कौसानी तक उसकी ये आँख मिचोली चलती रही...


पर्बतों से गले मिलते बादल, मिलन के गवाह बने सीढ़ी वाले खेत

कौसानी दो चीज़ों में लिये बहुत फेमस है यहाँ का सनराइज़ और सनसेट... होटल पहुँचते तक करीब छः बज गये थे... बारिश हो रही थी सो अलग... सनसेट देखने की हसरत मन में ही रह गयी... लेकिन यहाँ पहुँचने का सुकून था... होटल में चेक इन कर के रूम में पहुँचे तो वहाँ के नज़ारे ने सारी थकन उतार दी... रूम में ही पूरी दीवार भर की फुल लेंग्थ खिड़की से नज़र आती बारिश में भीगी हिमालय की चोटियाँ... अद्भुत नज़ारा था...


होटल की खिड़की से दिखता 375 किलोमीटर लम्बा हिमालयन रेंज

चेंज कर के और चाय पी कर जब तक हम होटल की छत पर पहुँचे तो हल्का अँधेरा घिर आया था... हवा ठंडी थी... हलकी सिहराने वाली... नीचे वादी में टिमटिमाता कोई पहाड़ी गाँव जुगनुओं के झुरमुट सा प्रतीत हो रहा था... आँखों और कैमरे में उस खूबसूरती को क़ैद कर वापस रूम में आये... खाना खाया...


जुगनुओं के झुरमुट सा टिमटिमाता पहाड़ी गाँव

करीब दस बजे लेट कर डायरी लिखते हुए इस पूरे दिन को याद किया... लखनऊ से कौसानी तक के इस एक दिन के सफ़र में कितने मौसमों से गुज़रे... गर्मी... उमस... बारिश... और अब ये निम्मी निम्मी ठण्ड... रूह को ठंडक पहुँचाने वाली... नींद ने कब बढ़ कर अपनी आगोश में समां लिया पता ही नहीं चला....!


 

Friday, June 27, 2014

पंचम... फिर नहीं आते...!


पंचम... रबीन्द्र संगीत की भूमि कोल्कता में जन्मा वो बच्चा जो रोता भी था तो पंचम सुर लगते थे... जब उसकी उम्र के दूसरे बच्चे खेल कूद में मसरूफ़ होते तो वो उस्ताद अली अकबर खान से सरोद की तालीम ले रहा होता... उसके पसंदीदा खिलौने हरमोनिका और ड्रम्स हुआ करते थे... महज़ नौ साल की उम्र में उसने अपना पहला गाना कंपोज़ किया... बड़ा हो कर ये बच्चा हिन्दुस्तानी फ़िल्मी संगीत का मशहूर संगीतकार बना... आर डी बर्मन... आज उनकी ७५वीं जयंती है...!

संगीत, पंचम के लिए हमेशा एक पैशन की तरह रहा.. और संगीत में नए नए एक्सपेरिमेंट करना उनका जूनून... हर वक़्त कुछ नया कुछ अलग कुछ लीक से हटकर करने की चाह... हर गाने के पीछे एक अलग और अनोखी कहानी... खुश्बू फिल्म का वो गाना याद है आपको " ओ मांझी रे..." उस गाने में हवा का साउंड इफ़ेक्ट लाने के लिए उन्होंने जानते हैं क्या किया ? कुछ सोडा बॉटल्स में थोड़ा थोड़ा पानी भर के उसमें फूँक कर ये इफ़ेक्ट क्रिएट करा.. ऑर्केस्ट्रा के साथ ये आवाज़ भी इस्तेमाल हुई गाने में...

फ़िल्म "बहारों के सपने" में पहली बार उन्होंने ट्विन ट्रैक इफेक्ट का इस्तेमाल किया "क्या जानू सजन" गाने में.. और उसके बाद इजाज़त फिल्म के लिए "कतरा कतरा मिलती है" गाने में, जिसे ज़बरदस्त सफलता मिली...

वो ब्राज़ीलियन बोस्सा नोवा रिदम को पहली बार हिंदी फिल्म म्युज़िक में ले कर आये... पति पत्नी फिल्म के गाने "मार डालेगा दर्द-ए-जिगर" में, जिसे आशा जी ने गाया...

फिल्म किताब के गाने "मास्टर जी की आ गयी चिट्ठी" के लिए पंचम क्लासरूम से डेस्क उठा कर स्टूडियो में ही ले आये और उसे परकशन की तरह इस्तेमाल किया...

इसी तरह "चुरा लिया है तुमने जो दिल को" गाने में उन्होंने एक और एक्सपेरिमेंट किया... इस गाने में उन्होंने चम्मच को गिलास पर बजा कर उसकी आवाज़ रिकॉर्ड करी थी...

एक बार तो पंचम पूरी रात जाग कर छत पे बारिश और पानी की बूंदों की आवाज़ रिकॉर्ड करते रहे.. जब तक उन्हें मन चाहा इफ़ेक्ट नहीं मिला.. फिर उसे अपने गाने में इस्तेमाल करा...

ऐसी न जाने कितनी ही कहानियाँ हैं उनके बनाये हर गाने के पीछे... संगीत के लिए ये जुनून बहुत कम लोगों में होता है...

जाने कितने ही गानों का म्युज़िक तो उन्होंने सपने में कंपोज़ करा... वो पश्चिमी संगीत से बहुत इंस्पायर्ड थे... यही वजह थी की अकसर उनपर गीतों की धुन कॉपी करने का इलज़ाम लगा... पर इस सब से बिना प्रभावित हुए वो संगीत की दुनिया में अपना काम करते रहे और अपनी छाप छोड़ते रहे...

चाहे वो मस्ती भरी धुन हो या जज़्बातों में डूबा हुआ कोई गीत, पंचम क्लासेज़ और मासेज़ दोनों के प्रिय थे और हमेशा रहेंगे... पंचम हमेशा मस्ती के मूड में रहते... गाना रिकॉर्ड करते करते नाचने लगते तो कभी सिंगर्स को तंग करते रहते... सजीदा गीतों की रिकॉर्डिंग करते हुए भी उनके प्रैंक्स कम नहीं होते थे.. किशोर और पंचम इस मामले में बिलकुल एक से थे... मेड फॉर ईच अदर टाइप... दोनों की दोस्ती भी कुछ ऐसी ही थी...

पंचम के बारे में बात करते हुए आशा जी एक इंटरव्यू में बताती हैं कि पंचम संगीत को ही जीते थे, खाते थे, सोते थे... भले ही वो ज़मीन पर सो जायें पर उनका रिकॉर्डिंग सिस्टम और स्टीरिओ हमेशा बिलकुल सही से रखा होना चाहिए था.. अगर उनको उनके म्युज़िक के साथ छोड़ दिया जाये बिना परेशान करे हुए तो फिर उनसे ज़्यादा नम्र इंसान और पति कोई हो ही नहीं सकता...

पंचम की बात हो और गुलज़ार साब के साथ उनकी दोस्ती का ज़िक्र न आये ऐसा हो ही नहीं सकता... दोनों ने साथ मिल कर ढेरों ऐसे गाने बनाये जो आज तक लोगों के दिलों में बसते हैं... "मुसाफिर हूँ यारों.." उनका पहला गाना था साथ में.. गाने की धुन तैयार कर पंचम रात के एक बजे गुलज़ार के पास आये और जगा कर बोले.. नीचे गाड़ी में चलो तुम्हें गाना सुनाता हूँ... और फिर रात भर दोनों मुंबई की सड़कों पर घूमते रहे और कैसेट पर ये गाना सुनते रहे...

पंचम के जाने के बाद गुलज़ार ने उनकी याद में एक पूरा एल्बम निकाला उनके गानों का अपनी कमेन्ट्री के साथ... पंचम को याद करते हुए गुलज़ार कहते हैं -  

वो प्यास नहीं थी जब तुम म्युज़िक उड़ेल रहे थे ज़िन्दगी में, 
और हम सब ओक बढ़ा के माँग रहे थे तुमसे, 
प्यास अब लगी है जब क़तरा क़तरा तुम्हारी आवाज़ का जमा कर रहा हूँ
क्या तुम्हें पता था पंचम की तुम चुप हो जाओगे और मैं तुम्हारी आवाज़ ढूँढता फिरूँगा...!

 

Friday, June 20, 2014

ख़ानाबदोश !



यात्रा करना कुछ कुछ ध्यान लगाने जैसा है... मेडीटेट करने जैसा... एक अनंत में ख़ुद को खो देने जैसा... एक असीम में ख़ुद को पा लेने जैसा... नयी जगह नये लोग नया वातावरण.. हर बार एक नया जन्म लेने जैसा... कितना रुच रुच के उस उपरवाले ने ये कायनात बनायी है... पूरी शिद्दत से... कहीं पेड़ कहीं पहाड़... झरने... जंगल... सागर... कहीं रेगिस्तान कहीं खेत खलिहान... ये प्रकृति कितनी ख़ूबसूरत है... जैसे हर कण में उसने अपना एक अंश छोड़ दिया है... और हम इंसानों के अन्दर एक यायावर की आत्मा... 

ये यायावरी ये ख़ानाबदोशी शायद थोड़ी ज़्यादा ही दे दी है उस उपरवाले ने हमें... पिछले जन्म की किसी बंजारन की आत्मा... थोड़ा सा समय बीतता है और लगता है बस अब कुछ दिनों के लिए कहीं घूम आना चाहिए... किसी नए शहर किसी नए कस्बे... और इस बार तो हद ही हो गयी... ढाई साल होने आ रहा है और हम कहीं जा नहीं पा रहे हैं... मन हर शाम एक अजीब सी बेचैनी से भर जाता है.. जैसे उसे भी सांस लेने को एक नयी खुली जगह चाहिए... पिछले साल फूलों की घाटी जाने का प्लान बनाया था... टूर ऑपरेटर को एडवांस पैसे भी जमा कर दिए, पर उत्तराखंड में पिछले साल आयी भयानक प्रलय से सारे टूर कैंसिल हो गए.. इस साल भी कोई ख़ास उम्मीद नहीं दिखती... तो आजकल किसी नयी डेस्टिनेशन की तलाश है... कहीं किसी दूसरे पहाड़ पर...

पहाड़ों में तो जैसे हमारी आत्मा बसती है... आज जब लोग सेविंग और रिटायरमेंट प्लान्स के बारे में सोचते हैं तो हम दूर किसी पहाड़ी पर एक छोटा सा कॉटेज लेने के बारे में सोचते हैं... वही किसी गाँव के किसी स्कूल में पहाड़ी बच्चों को पढ़ाते हुए तमाम उम्र गुज़र जाये तो क्या ही ख़ूब हो... उफ़ ये ख्वाहिशें... के हर ख्वाहिश पे दम निकले...

वैसे कितना कुछ है ना इस दुनिया में देखने को... एक्स्प्लोर करने को... छोटी छोटी जगहें... शहर... टापू... द्वीप... हिन्दुस्तान की बात करें तो काफ़ी हद तक हमने घूमा है... ज़्यादातर पहाड़... और बहुत कुछ है जो अभी देखना बाकी है... मुनार जाना है... केरेला देखना है... कच्छ का रण... कश्मीर... राजस्थान... गुजरात... दार्जलिंग... पेंगॉन्ग सो लेक... डलहौज़ी... चम्बा.. खजियार... लैंड्सडाउन... जिम कॉर्बेट... और भी न जाने क्या क्या... हमें उन सब जगहों पर जाना है... उन्हें महसूस करना है... आत्मसात करना है... कुछ पलों के लिये उन्हीं का हिस्सा हो जाना है...

ऐल्प्स की पहाड़ियाँ... सफ़ेद नीले घरों से जगमगाता मिकोनोस शहर... अमेज़न के घने जंगल... मालदीव्स का झिलमिलता नीला समुद्र... पानी में डूबता तैरता वेनिस... फ्रेंच वाइन यार्ड्स... ऑस्ट्रेलिया की ग्रेट बैरियर रीफ... लॉच नदी के किनारों पे बसा ख़ूबसूरत कोलमर शहर... फिलिपींस का डेडॉन आइलैंड... कैलाश मानसरोवर में बिखरे शिव...

सोचने बैठो तो एक के बाद एक नाम जुड़ते ही जाते हैं इस लिस्ट में... देखने को कितना कुछ है... और ज़िन्दगी कितनी छोटी... हर एक लम्हें में कितना कुछ जीना है... हर गुज़रते पल के साथ एक नया जन्म लेना है...!

Wednesday, April 9, 2014

तुम्हारी बातों में कोई मसीहा बसता है...!



तुमसे बात करना हर रोज़ डायरी लिखने जैसे है... सारे दिन की उथल पुथल... मन के सारे अजीब-ओ-गरीब ख्य़ाल... दुविधाएँ... व्याकुलता... ख़ुशियों के छोटे छोटे लम्हें... सब कुछ तुम्हें बता के, तुम्हें सौंप के... ख़ुद को एकदम खाली कर देने जैसा... फिर से एक नये दिन के नये अनुभव इकट्ठे करने के लिये... जानते हो ना लिखने के मामले में थोड़ा आलसी हूँ... सो तुमसे ही काम चला लेती हूँ... जिस दिन तुम नहीं मिलते लगता है कितना कुछ रह गया है भीतर ही... जिसे निकलना था बाहर... जो तुम्हें बताना था... मन सारा दिन बेचैन रहता है...

तुमसे बात करना सारे दिन की थकन के बाद अपना पसंदीदा संगीत सुनते हुए शाम की ठंडी हवा में बैठ के इलायची वाली चाय पीने जैसा है... रिलैक्सिंग ! मन को नयी स्फूर्ति से भर देने वाला...

तुमसे बातें करना ऐसे है जैसे लू भरी दोपहर में ठन्डे पानी का एक घूँट मिल जाना... आत्मा को तृप्त कर देने जैसा... चिलचिलाती धूप में बरगद की विशाल छाया मिल जाने जैसा...

तुमसे बात करना किसी उमस भरी शाम पानी के पोखर में पैर डाल के घंटों बैठे रहने जैसा है... ठंडक तलवों से होते हुए कब मन तक पहुँच जाती है पता ही नहीं चलता...

तुमसे बात करना कोई तस्वीर पेंट करने जैसा है... मन के सारे रँग कैनवस पे उकेर देने जैसा... हल्के आसमानी... गहरे हरे... सुर्ख़ लाल...

तुमसे बात करना सृजन करने जैसा है... किसी बच्चे को जन्म देने जैसा... ख़ुद को परिपूर्ण करने जैसा...

तुमसे बात करना सिर्फ़ तुम्हारे साथ समय बिताने का एक निमित्त मात्र है... जिसे किसी भी वजह की ज़रूरत नहीं होती...

सांझ ढले तुम्हारी आवाज़ कानों में घुलती है तो दिन भर में मन पर उभर आयी सारी ख़राशों पर मलहम सा लग जाता है...

मानती हूँ हम बहुत झगड़ने लगे हैं इन दिनों... पर एक आदात जो हम दोनों में एक सी है... बुरे पल हम कभी याद नहीं रखते... तुम्हारी यादों की भीनी गलियों में उन पलों को आने की इजाज़त नहीं है... वहाँ सिर्फ़ तुम्हारी मिठास बसती है... और तुम... मुस्कुराते हुए... गुनगुनाते हुए... बादल बिजली... चन्दन पानी... जैसा अपना प्यार...!


Friday, February 14, 2014

हँसने रुलाने का आधा-पौना वादा है... !



बहुत कुछ है जो तुमसे कहने का दिल हो रहा है... क्या ये नहीं मालूम... पर कुछ तो है... कितने ही शब्द लिखे मिटाये सुबह से... कोई भी वो एहसास बयां नहीं कर पा रहा जो मैं कहना चाहती हूँ... गोया सारे अल्फ़ाज़ गूंगे हो गए हैं आज... बेमानी... तुम सुन पा रहे हो क्या वो सब जो मैं कहना चाहती हूँ ?

ऐसी ही किसी तारीख़ को ऐसे ही किसी प्यारे दिन की याद में ये लिखा था कभी... तुम्हारे लिए... आज भेज ही देती हूँ प्यार की ये चिट्ठी तुम्हारे नाम...

एक दूजे को देख कर जब
मुस्कुरायीं थी आँखें पहली बार
लम्हें का इक क़तरा थम गया था !
वो ख़ुशनुमा क़तरा आज भी बसा है ज़हन में

वो पहली बार जब थामा था तुम्हारा हाथ
मेरी उँगलियों ने बींध लिया था
तुम्हारी उँगलियों का लम्स भी 
वो लम्स अब भी महकता है मेरे हाथों में

उस आधे चाँद की मद्धम चाँदनी
उम्मीद के कच्चे दिए की लौ सी
टिमटिमाती हुई आज भी आबाद है
दिल के अँधेरे कोने में कहीं

सागर की उन बांवरी लहरों ने
बाँध के मेरे पैरों को रोका हुआ है वहीं
हमारे पैरों के निशां संजो रखे हैं
साहिल की गीली रेत ने अब तलक

जी करता है ठहरे हुए लम्हों के वो मोती
गूँथ के इक डोर में करधनी सा बांध लूँ
या पायल बना के पहन लूँ
और छनकाती फिरूँ मन का आँगन !



Thursday, January 30, 2014

गुल्ज़ारिश !




"गुलज़ार"... इस नाम ने हमेशा ही फैसिनेट किया है हमें... न सिर्फ़ उनकी लेखनी ने बल्कि उनकी पूरी शख्सियत ने... उनकी आवाज़... उनका हमेशा कलफ़ किया सफ़ेद कुर्ता पायजामा पहनना... ज़रदोज़ी की हुई उनकी सुनहरी मोजरी... उनका चश्मा होंठों में फंसा के लिखने का अंदाज़... हर बात कुछ हट के कुछ अलग... आम होते हुए भी बहुत ख़ास... इतना क्रेज़ तो शायद आज तक कभी किसी फ़िल्मी हीरो के लिए भी नहीं रहा होगा हमें... जैसा की आम तौर पर लड़कियों को होता है... गुलज़ार साब के प्रति हमारा ये लगाव अब जग ज़ाहिर या यूँ कहूँ कि ब्लॉग ज़ाहिर बात हो चुकी है...

गुलज़ार साब का लिखा बहुत पढ़ा.. इन दिनों उनके बारे में पढ़ रही हूँ.. दो किताबें मंगवाईं हैं पिछले दिनों फ्लिप्कार्ट से.. "In the company of a poet" और "I swallowed the moon"...

In the company of a poet - नसरीन मुन्नी कबीर की गुलज़ार साब से एक लम्बी बातचीत पर आधारित है... इस किताब के पन्नों से गुल्ज़रते हुए लगता है गुलज़ार साब का कोई लम्बा इंटरव्यू चल रहा हो... अमूमन किसी मैगज़ीन में छपा कोई इंटरव्यू हद से हद एक या दो पेज का होता है.. या रेडियो और टीवी इंटरव्यू एक से दो घंटे का... पर यहाँ पूरे २०० पेज लम्बा इंटरव्यू है... पूरी की पूरी किताब !

बचपन से लेकर गुलज़ार साब के स्ट्रगल के दिनों तक, दीना से लेकर दिल्ली तक फिर दिल्ली से लेकर मुंबई तक, उनके उर्दू लिपि में लिखने से लेकर उनके बंगाली प्रेम तक... उनकी पहली पढ़ी हुई किताब से लेकर पहली चुराई हुई किताब तक... "शमा" में छपी उनकी पहली कहानी से लेकर (जिसका मेहेंताना उन्हें महज़ १५ रुपया मिला था) बंदनी के लिए "मोरा गोरा अंग लई ले" लिख कर फिल्मों में आने तक... गीत लिखने से लेकर फिल्मों की कहानी लिखने तक... बाइस्कोप पर सबसे पहली फिल्म सिकंदर देखने से लेकर फ़िल्में निर्देशित करने तक... मुंबई के गैराज में काम करने से लेकर फ़िल्मी दुनिया के स्टॉलवर्ट्स को जानने और उनके साथ काम करने तक... उन्हें जन्म देने वाली माँ से लेकर पालने वाली माँ तक... भाई बहन पिता परिवार... यार दोस्त... राखी, बोस्की से लेकर समय तक.. उनकी ज़िन्दगी के हर एक पहलू को छूती है ये किताब... बहुत कुछ जो जानते थे गुलज़ार साब के बारे में और बहुत कुछ जो कभी नहीं सुना या पढ़ा था कहीं...



किताब का फॉर्मेट भी दिलचस्प है... इंटरव्यू जैसा ही.. सवाल जवाब के अंदाज़ में ही है पूरी बातचीत... ना सिर्फ़ फॉर्मेट में बल्कि कन्टेन्ट में भी ये गुलज़ार साब पर लिखी हुई दूसरी किताबों से अलग है... ये किताब ख़ासतौर पर गुलज़ार साब के बचपन से लेकर फ़िल्मी दुनिया तक के उनके सफ़र पर ज़्यादा रौशनी डालती है...

हमारी दोपहरें आजकल इसी किताब के नाम हैं... हमारे साथ ही ऑफिस आती है ये किताब भी.. और लंच के बाद का आधा घंटा ऑफिस के पास के पार्क में गुलज़ार साब को जानते हुए ही गुज़रता है... और क्या खूब गुज़रता है...


जिस दूसरी किताब का ज़िक्र ऊपर किया है - "I swallowed the moon" उसे सबा महमूद बशीर ने लिखा है... दरअसल सबा ने गुलज़ार साब की शायरी पर शोध यानी की PhD करी है... यूँ तो शोध आम तौर पर नाम से ही हमें बोरिंग लगता है.. पर जब पता चला की किसी ने गुलज़ार साब की शायरी पर पूरी थीसिस लिखी है तो पहला रिएक्शन था "wow !" कितना मज़ा आया होगा ऐसे विषय पर शोध करने में...

ये किताब असल में उस शोध की ही उपज है...

यूँ तो सबा ने बड़ी ही ख़ूबसूरती से इस किताब में गुलज़ार की शायरी की थीम उनके शब्दों और भाषा के चुनाव पर रौशनी डाली है... फिर भी कहीं कहीं थीसिस का हिस्सा होना हावी हो जाता है... अगर आप पूरी तरह से एक सिनेमा एन्थुज़िआस्ट नहीं है तो कहीं कहीं शुरुआती हिस्से में ये आपको बोर कर सकती है... पर जब बात गुलज़ार की शायरी की चलती है तो मन करता है एक के बाद एक पन्ने यूँ ही पढ़ते जाएँ...

किताब में बहुत ही डिटेल में बताया है की किस तरह गुलज़ार अपने शब्दों के ख़ूबसूरत चुनाव से और अपनी इमेजरी से एक के बाद एक ख़ूबसूरत नज़्मे और ग़ज़लें पेंट करते आये हैं... जिस पर हम जैसे पाठक हर बार अपना दिल निसार करते हैं और आह भर के कहते हैं की कोई कैसे इत्ता ख़ूबसूरत सोच और लिख सकता है...

लिखना तो लिखना उनकी तो बातें भी इतनी निराली होती है... अपनी शायरी में अंग्रेज़ी भाषा के शब्दों के उपयोग को गुलज़ार साब कितनी खूबसूरती से समझाते हैं उसकी एक छोटी सी झलक आपको भी पढ़वाती हूँ...



हमारी रातों का चाँद आजकल इस किताब ने ही निगल रखा है...!

दोनों ही किताबें पढ़ने की ललक इतनी थी की डिसाइड नहीं कर पा रहे थे की पहले किसी पढ़ें और बाद के लिए किसे छोड़ें... तो हार कर ये तरीका निकाला... दिन के एक किताब और रात को दूसरी... दोनों साथ साथ... आधी आधी पढ़ी हैं अब तक... दोस्त लोग पागल कहते हैं हमें... हम भी इनकार नहीं करते... गुलज़ार को जानना है ही ऐसा !




Related Posts with Thumbnails