Wednesday, December 18, 2013

तेरा नाम इश्क़ मेरा नाम इश्क़ !


तुम्हारी हँसी की आवाज़ आज बहुत देर तलक कानों में गूँजती रही...

जानते हो आज कितने दिनों बाद तुम इतना खुल के हँसे हो... वो बच्चों सी उन्मुक्त हँसी... ख़ुशी से गीली हो आयी पलकों से पोंछ के काजल... जी किया कि तुम्हारी हँसी को काला टीका लगा दूँ... या फ़ेंक के कोई जाल क़ैद कर लूँ इस लम्हें को... तुम्हारी हँसी से गूँजता खिलखिलाता ये लम्हा...

रोज़ हँस दिया करो ना ऐसी हँसी एक बार... भले मेरा मज़ाक बना कर ही सही... दिन बन जाता है मेरा...!


----------



एक हूक सी उठती है कई दफ़े दिल में... कि तुम्हारा हाथ थाम के और तुम्हारे काँधे पे सर रख के बस बैठी रहूँ कुछ देर... बिन कुछ बोले... तुम्हारा लम्स महसूस करूँ अपनी हथेली में... कि तुम्हारे हाथों की गर्मी मन को बहुत ठंडक पहुँचाती है... जैसे कोई अनदेखी ऊर्जा तुम्हारी हथेलियों से होके मेरे मन तक पहुँच रही हो... ज़िन्दगी की ऊर्जा... तुम से मुझ तक बहती हुई... सारी थकन सारी उदासी चंद पलों ही में कहीं ग़ुम हो जाती है...

टच थेरेपी और क्वांटम टच के बारे में सुना है कभी तुमने... कभी सोचा कैसे एक रोता हुआ बच्चा माँ की गोद में आते ही चुप हो जाता है... आप कितनी भी असफ़ल कोशिश कर चुकें हों उसे चुप करने की पर कैसे माँ के सहलाते ही बच्चे का सुबकना बंद हो जाता है... स्पर्श का ये कैसा बेआवाज़ रिश्ता होता है माँ और बच्चे के बीच...

तुम मेरे लिए माँ का वही स्पर्श हो... !

----------



चाय - कॉफ़ी पीने का मुझे कभी भी बहुत शौक़ नहीं रहा...मेरे लिए वो सिर्फ़ तुम्हारे साथ समय बिताने का बहाना मात्र हुआ करती थीं...वो लॉन्ग ड्राइव्स... वो बेवजह की बातें... वो बेवजह के किस्से कहानियाँ... वो बेवजह के झगड़े... सब...

जानती हूँ बहुत कीमती है तुम्हारा समय... और मेरे पास बेवजह की बातें बहुत सी... फिर भी मेरे सारे प्यार के बदले क्या एक दिन उधार दे सकते हो मुझे ? सिर्फ़ चौबीस घंटे...

बहुत समय हो गया ज़िन्दगी जिये... बड़ी सारी बेवजह की बातें भी इकट्ठी हो गयी हैं...!


----------



कभी किसी को एक ही सी इंटेंसिटी से पसंद और नापसंद किया है ? नहीं ? मतलब कभी किसी से प्यार नहीं किया आपने... किसी से प्यार कर के देखिये हुज़ूर... सच्चा प्यार... उसकी अच्छाइयों पे जितना प्यार आएगा उसकी बुराइयों से आप उतनी ही नफ़रत करेंगे... प्यार जितना सच्चा होगा नफ़रत उतनी ही तीव्र...

अजीब रिश्ता था उन दोनों का... पल में तोला पल में माशा जैसा... एक पल एक दूसरे पे इतना प्यार बरसाते मानो इस धरती पर प्यार की नीव उन्हीं ने डाली हो और दूसरे ही पल ऐसे पागलों के जैसे लड़ते गोया इस धरती से प्यार का अंत भी उन्हीं के हाथों लिखा हो... शब्दों के तीर से कभी ज़ख्म देते तो कभी उन्हीं ज़ख्मों पर शहद जैसे शब्दों से मरहम लगते... दर्द भी ख़ुद ही, ख़ुद ही दवा भी... जाने किस दुनिया के बंदे थे...

हमारा रिश्ता भी तो कुछ ऐसा ही अजीब है ना जान... इंटेंस... इन्सेशियेबल... इनसेन...!





Monday, September 2, 2013

तेरा ज़िक्र है या इत्र है...


तुम्हारा वजूद मेरे चारों ओर बिखरा हुआ है… कुछ भी करती हूँ तो जाने कहाँ से तुम चले आते हो… पेड़ों को पानी दे रही होती हूँ तो तुम पानी का पाइप छीन कर मुझे भिगो देते हो… खाना बना रही होती हूँ तो आ कर पीछे से जकड़ लेते हो बाहों में... कोई गाना सुन रही होती हूँ तो उसमें भी किरदार की जगह तुम ले लेते हो… कोई इमेज सर्च करती हूँ गूगल पे तो तुम्हारी यादें घेर लेती हैं आ के… तुमसे मिलने के बाद आज तक कभी अकेले चाय-कॉफ़ी नहीं पी पायी हूँ… कप से पहला सिप हमेशा तुम लेते हो…

पीले गुलाब की ख़ुशबू... पूरनमासी का चाँद... झील... पहाड़... झरने... जंगल... बर्फ़... पानी... रेत... सागर… क्या क्या भूलूँ मैं और कैसे भूलूँ... साँस लेना भूल सकता है क्या कोई ?

**********

जानते हो जब भी तैयार होकर आईने के सामने खड़ी होती हूँ तो "मैं" "तुम" में तब्दील हो जाती हूँ... ख़ुद को तुम्हारी नज़र से देखती हूँ... खूबसूरत हो जाती हूँ… ख़ुद पर ही रीझती हूँ... ख़ुश होती हूँ... मुस्कुरा उठती हूँ...

वो देखा होगा न पिक्चरों में… कैसे एक इंसान के अन्दर दो आत्माएं रहती हैं... एक सफ़ेद और एक काली… एक अच्छी एक बुरी… एक सही एक ग़लत… मेरे अन्दर भी दो लोग रहते हैं… "तुम" और "मैं"… अच्छे वाले "तुम" और बुरी वाली "मैं"…

सुना है अंत में जीत हमेशा अच्छाई की होती है…

**********

मैं रोती हूँ तो आँसू बन कर तुम गालों पे ढुलगते हो… हँसती हूँ तो होठों पर मुस्कराहट बन तुम महकते हो… दिल धड़कता है कि इसमें तुम रहते हो… साँसे चलती हैं कि उन्हें पता है दूर कहीं तुम साँस ले रहे हो… अपनी ज़िन्दगी में ख़ुश हो… आगे बढ़ चुके हो…

तुमने बहुत देर कर दी जान… बस दो कदम पहले बता देते मुझे तो मैं संभाल लेती ख़ुद को… पर अब तुम इस क़दर आत्मसात हो चुके हो मुझमें कि तुमसे दूरी बना पाना बहुत मुश्किल हो रहा है… हर पल तुम्हें ही सोचते रहने के बाद ये दिखाना कि तुम्हें अब पहले की तरह नहीं याद करती… कि पहले के जैसे महसूस नहीं करती तुम्हारे बारे में… कि मैं ख़ुश हूँ… कि मन को किसी और काम में उलझा लिया है…

तुमसे झूठ भी तो नहीं बोल सकती… लड़ सकती हूँ… सो लड़ रही हूँ…  तुमसे…  ख़ुद से… ज़िन्दगी से…

**********

कब क्यूँ कहाँ कैसे किसलिए… सवालों की फ़हरिस्त लम्बी है… जवाब बस इतना भर कि ज़िन्दगी है… और तुम्हें सज़ा मिली है जीने की… "यू हैव टू लिव टिल डेथ" दूर कहीं ये कह के कलम तोड़ दिया किसी ने…

**********

कभी कभी सोचती हूँ मीरा के बारे मे… अजीब दीवानी थी… बिलकुल नॉन-प्रैक्टिकल… कोई ऐसे किसी के प्यार में अपना घर-द्वार सारा सँसार भूल बैठता है क्या… सिर्फ़ उसका नाम लेकर ज़हर का प्याला पी लेना कोई समझदारी है क्या… वो न समझता उसके प्यार को तो… मर जाती तो… उसे फ़र्क पड़ता क्या…

कभी मैं पी लूँ ज़हर तुम्हारे प्यार में तो… तुम आओगे क्या बचाने ?


Sunday, August 18, 2013

तुम जियो हज़ारों साल... मेरे यार जुलाहे !!!


मुझको भी तरकीब सिखा कोई यार जुलाहे !

दाँतों में ऐनक की डंडी दबाये... काली स्याही से उर्दू जुबां में जब... रेशमी हुरूफ़ों से कागज़ का आँचल रंगते हो... जानते हो किसी बूढ़े फ़रिश्ते की मानिंद लगते हो... झक सफ़ेद कुरते पायजामे और पकी हुई दाढ़ी में गोया चंद ख़राशें लिए चाँद अपनी पूरी आभा के साथ चमक रहा हो आसमान के आग़ोश में...

तुम्हारी नज़्मों की तरह तुम्हारी शख्सियत भी बड़ी रहस्यमयी सी है... तुम्हारी नज़्मों में कई परते होती हैं... बहुत से मानी... पढ़ने वाला कितना समझ पाता है ये उसकी समझ और संवेदनशीलता पर निर्भर करता है... जितनी बार पढ़ो उतनी बार नये आयाम खुल कर सामने आते हैं और लगता है हाँ एक नज़रिया ये भी तो हो सकता है... तुम्हारी शख्सियत भी कुछ वैसी ही है... आज तक तुम्हारे जितने भी इंटरव्यूज़ पढ़े या देखे हमेशा यही महसूस हुआ कि जो तुम बताते हो उससे कहीं ज़्यादा सामने वाले को खुद समझना होता है...

तुम्हें कब से जानती हूँ मालूम नहीं पर हमेशा यही लगा की बरसों से तुम्हारे लफ़्ज़ों को जीती आयी हूँ... मोगली से ले कर मेरा कुछ सामान तक... हर मूड.. उम्र के हर दौर में तुम साथ थे... उदास होती हूँ तो लगता वो सारी उदासी तुमने लफ़्ज़ों में पिरो के गीत की शक्ल दे दी है... खुश होती हूँ तो उसकी लहक भी तुम्हारे बोलों में नज़र आती है... प्यार में होती हूँ तो तुम्हारे सारे गीत बेहद अपने से लगते हैं... जैसे मैंने ही अपनी डायरी में लिखा हो इन्हें...

बचपन में कभी संडे को मोगली और पोटली बाबा की ले कर आ जाते तुम तो कभी प्यार में पड़ने पर माया मुझ में जीने लगती... हाल ही में तकरीबन तुम्हारी सारी ही फ़िल्में फिर से देखीं... उन सब में शायद इजाज़त हमारे दिल के सबसे करीब है... पूरी फ़िल्म एक बड़ी नज़्म सी लगती है... या फिर किसी खूबसूरत पेन्टिंग सरीखी... इन्सानी जज़्बातों और रिश्तों की पेचीदगी को कितनी खूबसूरती से दिखाया है तुमने...

पंचम के साथ जो सफ़र शुरू किया था तुमने वो विशाल तक जारी है... तकनीक भले बादल गयी पर रूह अभी तक ताज़तन है... आज अपने इंटरव्यूज़ तुम "Skype" पर भी देते हो... और इससे तुम्हें मिलवाने वाला और कोई नहीं ऐ. आर. रहमान हैं... जिन्होंने खुद "Skype" को तुम्हारे लैपटॉप में इंस्टाल किया और इसे चलाना सिखाया तुम्हें... वही रहमान जिन्हें तुम बाल भगवान कहते हो... उम्र के इस दौर में भी तुम्हारा दिल बच्चा है अभी तो इसका कुछ श्रेय तो विशाल, रहमान जैसे लोगों को भी जाता है... और कुछ टेनिस खेलने के तुम्हारे शौक़ को... बाकि बची कसर "समय" ने पूरी कर दी... जिसके पीछे तुम सारा दिन दौड़ते फिरते हो... पहले बोस्की के लिये किताबें लिखा करते थे और अब समय के लिये...

तुम्हारी नज्में हों या फ़िल्में... नोस्टैल्जिया से तुम्हारा लगाव साफ़ नज़र आता है... लोग शहरों में बस्ते हैं और तुमने अपने अन्दर जाने कितने शहर बसा रखे हैं... दीना हो या दिल्ली जहाँ भी रहे वहाँ का एक हिस्सा हमेशा के लिये तुम्हारे अन्दर ही बस गया... उसके गली, मोहल्ले, पेड़, सड़कें, लैम्पपोस्ट तक तुम्हारी नज़्मों में आज भी साँस लेते हैं... कैसे कर पाते हो इतना प्यार सबसे... कैसे जुड़ जाते हो ऐसी बेजान चीज़ों से और उनमें भी जान फूँक देते हो... चाँद को तो तुमने जैसे कॉपीराइट करा लिया है... आधा चाँद, पूरा चाँद, फीका चाँद, गीला चाँद, रोटी सा चाँद, इतनी उपमाएं तो खुद ब्रह्मा ने भी नहीं सोची होंगी चाँद को रचते समय...

जब तुमने समपूरण सिंह कालरा की जगह खुद को "गुलज़ार" नाम दिया तो तुम्हारे बहुत से साथी शायरों ने तुमसे कहा कि ये नाम कुछ अधूरा सा लगता है बिना किसी उपनाम के... आज इतने बरसों बात ये नाम अपने आप में सम्पूर्ण है... गुलज़ार... सिर्फ़ गुलज़ार... जैसा तुम चाहते थे... जैसे अब लोग तुम्हें चाहते हैं...

तुम्हें चाहने वाले हर उम्र, हर दौर और दुनिया के हर कोने में मौजूद हैं... गुल्ज़ारियत को पूरी शिद्दत से मानने वाले... तुम्हारी ऐसी ही एक फैन और सिडनी के एक रेडियो चैनल में काम करने वाली शैलजा चंद्रा से तुम्हारी बातचीत की रिकॉर्डिंग कल रात ही हाथ लगी... सुनते सुनते कब रात के तीन बज गये पता ही नहीं चला...

तुम्हारे जन्मदिन पर ख़ास तुम्हारे चाहने वालों के लिये यहाँ छोड़े जाती हूँ... जन्मदिन बहुत मुबाराक़ हो... लफ़्ज़ों का ताना-बाना बुनने वाले मेरे यार जुलाहे!


Thursday, August 15, 2013

प्यार जब हद से बढ़ा सारे तकल्लुफ़ मिट गये...!


प्यार जब हद से बढ़ा सारे तकल्लुफ़ मिट गये
आप से फिर तुम हुए फिर तू का उन्वां हो गये


मेहदी हसन साहब ने अपनी रेशमी आवाज़ में ये गाते हुए बेहद गहरी सोच में डाल दिया... क्या यूँ सारे तकल्लुफ़ मिट जाना सही है... क्या थोड़ा तकल्लुफ़, थोड़ी मासूमियत रिश्तों को ज़्यादा खूबसूरत नहीं बनाए रखती ?

किसी भी रिश्ते में दो लोगों कि सोच एक हो ये ज़रूरी नहीं... वो दोनों ही दो अलग व्यक्तित्व होते हैं... अलग सोच अलग शख्सियत के लोग... यही उनकी विशेषता भी होती है और उनका यूँ अलग हो कर भी साथ होना उस रिश्ते की खूबसूरती भी...

एक रिश्ते की शुरुआत में आप अपने साथी कि सारी अच्छी बुरी आदतों को अपनाते हैं... बिना किसी शिकायत... या किसी बात से शिकायत हुई भी तो या तो नज़रंदाज़ कर दिया या प्यार से समझा के चीज़ों को सुलझा लिया... इस बात को ध्यान में रखते हुए कि सामने वाले को बुरा न लगे... फिर जैसे जैसे समय बीतता है आपका रिश्ता परिपक्व होता है... आपसी समझ और नज़दीकी बढ़ती है... और उसके साथ ही वो सारे तकल्लुफ़ भी खत्म होते जाते हैं जो कभी अपने साथी की ख़ुशी के लिये तो कभी उसे "स्पेशल" फील कराने के लिये किये जाते थे...

अब जो भी कहना होता है स्पष्ट, सपाट और साफ़ शब्दों में कहा जाता है... बिना किसी लाग लपेट के... बिना इस बात की फ़िक्र किये कि सामने वाले को शायद इतनी साफ़गोई बुरी भी लग सकती है...

सच बोलने में कोई बुराई नहीं है... किसी भी रिश्ते की नीव ही सच्चाई पे ही टिकी होती है... एक रिश्ते की खूबसूरती ही इसी में है कि आप अपने साथी से कुछ भी और सब कुछ बोल सकते है... हाँ, अगर इस तरह से कहा जाये कि सामने वाले को बुरा न लगे तो क्या ही अच्छा हो...

यूँ  तो समय के साथ रिश्तों में परिपक्वता आना सही भी है और ज़रूरी भी... पर प्रश्न ये है कि किस हद तक... क्या रिश्ते परिपक्व होते हैं तो सामने वाले के लिये आपकी चाह आपकी परवाह कम हो जाती है ? नहीं न... तो फिर उसकी ख़ुशी के लिये अगर कभी उसके मन की ही कर ली जाये तो उसमें क्या हर्ज़ है... ऐसा नहीं करेंगे तो भी वो आपको छोड़ कर नहीं चला जायेगा... वो भी उतना ही समझदार है जितने कि आप... उसे आपकी नियत पर कोई शुबा नहीं है... पर उसे ज़रा सी ख़ुशी दे कर आपका भी तो कुछ नहीं घटेगा...

बात दरअसल यहाँ परिपक्वता की है ही नहीं... शायद इतनी आदत हो जाती है हमें एक दूसरे की... हमारे हक़ का दायरा इतना बढ़ जाता है कि हम सख्त होते चले जाते है... हमारा वो कोमल, सौम्य, नर्म रूप कहीं खो सा जाता है... भावनायें वही हैं अब भी... बस उनकी अभिव्यक्ति या तो कम हो जाती है या उसका तरीका बिलकुल बादल जाता है... तकल्लुफ़ और मासूमियत से एकदम परे...

रिश्तों की खूबसूरती न बचा पाये ऐसी परिपक्वता फिर किस काम की...!

P.S. : ये अभी अभी दिल और दिमाग की उथल पुथल से निकला एक निष्कर्ष मात्र है... आप हमसे असहमत होने का पूरा हक़ रखते हैं...

Friday, July 5, 2013

वो जिसकी जुबां उर्दू की तरह...!





रफ़्ता रफ़्ता अर्श पे पहुंची है शान-ए-लखनऊ
मिलती जुलती है फ़रिश्तों से ज़बान-ए-लखनऊ
-- शफ़ीक़ लखनवी


अदब और तहज़ीब के शहर में जन्म लेना और बड़ा होना आपके व्यक्तित्व पर ख़ासा असर डालता है... एक आम मध्यम वर्गीय परिवार की बात करें तो बोलना सीखने के साथ ही यहाँ एक अदबी लहज़ा ख़ुद-ब-ख़ुद आ जाता है आपकी बोली में... यहाँ की भाषा उन कुछ चीज़ों की लिस्ट में सबसे ऊपर है जो हमें हमारे शहर का दीवाना बनाती हैं और उस पर फ़क्र करना भी सिखाती हैं...

हालाँकि अब वो पहले जैसी बात नहीं रही यहाँ की भाषा में भी... अंग्रेजी के पीछे दौड़ती आज की युवा पीढ़ी अपनी मातृ भाषा बोलने में भी शर्म महसूस करती है... तो अदब और तहज़ीब की बात कौन करे... बहरहाल... अभी भी बहुत से ऐसे लोग बचे हैं जिन्होंने आज भी हमारी इस विरासत को सम्भाल रखा है... जिनकी बदौलत ये दुनिया आज भी अदब और आदाब के इस शहर की कायल है... वो लोग जो एक हाथ से बीते कल की डोर थामे हुए हैं और एक हाथ से वर्तमान की...

देखा जाये तो लक्ष्मण की नगरी और नवाबों के इस शहर लखनऊ में कोई एक भाषा नहीं बोली जाती... अवधी, उर्दू और हिंदी का कुछ मिला जुला सा रूप है... और तीन इतनी मीठी भाषाएँ जब आपस में घुल मिल कर एक हो जाएँ तो क्या जादू करती हैं इसका असर आप सिर्फ़ लखनऊ आ कर ही महसूस कर सकते हैं...

अपनी चमक खोती जा रही लखनऊ की तहज़ीब और रवायत को एक बार फिर से संभाल कर उसी अर्श पर पहुंचाने की कवायद में बहुत से स्वयं सेवी संघ आगे आये हैं.. उनमें से ही एक जाना पहचाना नाम है "लखनऊ सोसाइटी"... जो लखनऊ की विरासत, उसकी कला और संस्कृति को एक बार फिर से जीवित करने में एक अहम् भूमिका अदा कर रहे हैं... पिछले दिनों इनकी एक मुहीम "Let's Save Calligraphy" से जुड़ने का मौका मिला...

ग़ालिब और फैज़ को पढ़ने के शौक़ ने यूँ तो थोड़ी बहुत उर्दू और फ़ारसी के अल्फाज़ों की समझ दे दी थी पर उर्दू लिखना और पढ़ना चाह कर भी कभी सीखने का मौका नहीं मिला... तो लखनऊ सोसाइटी की बदौलत हो रहे कैलीग्राफी या ख़त्ताती के इन सेशंस में सबसे ज्यादा फायदा ये हुआ की उर्दू सीखने और समझने का मौका मिला... जो की उम्मीद करती हूँ की इन सेशंस के ख़त्म होने के बाद भी सीखती रहूंगी... ख़त्ताती और तुगराकारी तो खैर सीखा ही...

ख़त्ताती और तुगराकारी को ज़रा और पास से समझने के लिये लखनऊ की कुछ पुरानी इमारते भी देखने गये हम सब... जिसमें हुसैनाबाद स्थित छोटा इमामबाड़ा बेहद ख़ास है... 1838 में अवध के तीसरे नवाब मुहम्मद अली शाह द्वारा बनवाए गये इस इमामबाड़े की ख़ासियत ये है कि इस पूरी इमारत कि बाहरी दीवार पर अरबी में ख़त्ताती और तुगराकारी करी हुई है.. जो अपने आप में बेजोड़ है... दूर से देखने में ये बड़ा ही कलात्मक प्रतीत होता है...

वो डायलॉग तो सुना ही होगा आपने फ़िल्म आँधी के गाने में... "तेरे बिना ज़िंदगी से कोई शिकवा तो नहीं..." के बीच जब संजीव कुमार कहते हैं... "सुनो आरती, ये जो फूलों की बेलें नज़र आती हैं न, दरअसल ये बेलें नहीं हैं अरबी में आयतें लिखी हैं..." कुछ वैसा ही महसूस हुआ उस दिन वो सब देख के... सब जीवंत हो आया था जैसे... खूबसूरत... बेहद खूबसूरत...!

बातों से बात निकलती है तो कैसे कड़ियाँ जुड़ती चली जाती हैं... है न... चलती हूँ अब... और आप सब को छोड़ जाती हूँ गुलज़ार साब की एक बेहद खूबसूरत नज़्म के साथ...

ये कैसा इश्क है उर्दू ज़बां का
मज़ा घुलता है लफ्जों का ज़बां पर
कि जैसे पान में महंगा क़माम घुलता है
नशा आता है उर्दू बोलने में
गिलोरी की तरह हैं मुंह लगी सब इस्तिलाहें
लुत्फ़ देती हैं

हलक़ छूती है उर्दू तो
हलक़ से जैसे मय का घूँट उतरता है !
बड़ी एरिस्टोक्रेसी है ज़बां में
फ़कीरी में नवाबी का मज़ा देती है उर्दू

अगरचे मानी कम होते हैं और 
अल्फाज़ की इफरात होती है
मगर फिर भी
बलंद आवाज़ पढ़िये तो
बहुत ही मोतबर लगती हैं बातें
कहीं कुछ दूर से कानों में पड़ती है अगर उर्दू
तो लगता है
कि दिन जाड़ों के हैं, खिड़की खुली है
धूप अन्दर आ रही है

अजब है ये ज़बां उर्दू
कभी यूँ ही सफ़र करते
अगर कोई मुसाफिर शेर पढ़ दे मीर-ओ-ग़ालिब का
वो चाहे अजनबी हो
यही लगता है वो मेरे वतन का है
बड़े शाइस्ता लहजे में किसी से उर्दू सुनकर
क्या नहीं लगता -
कि इक तहज़ीब की आवाज़ है उर्दू !

- गुलज़ार

Thursday, May 30, 2013

मिलेगी छाँव तो बस कहीं धूप में मिलेगी...!


एक दोस्त हमेशा कहता है, शायद मज़ाक में... सच बोलते हुए इंसान बहुत ख़ूबसूरत हो जाता है... पर महसूस करो तो उसकी बात सौ फ़ीसदी सही है... सच बोलते हुए या सच स्वीकारते हुए आप हमेशा ख़ूबसूरत महसूस करते हैं ख़ुद को... एक आभा आ जाती है चेहरे पर... शायद मन का सुकूं चेहरे पे झलक आता होगा... आज बहुत समय बाद अच्छा सा महसूस हो रहा है... ख़ुद से सच बोल के... मन बहुत हल्का सा लग रहा है...

हम अक्सर अपने रिश्तों को मुट्ठी में कस के पकड़ने की कोशिश करते हैं... भूल जाते हैं रिश्ते बहता पानी होते हैं... जितनी कस के पकड़ने की कोशिश करेंगे वो उतनी ही तेज़ी से हमारी मुट्ठी से बह जायेगा... छोड़ जायेगा बस बीते लम्हों की कसक लिए एक नम सी हथेली.. और आज़ाद छोड़ दो तो चाहे कितनी भी रुकावटें हो रास्ते में वो अपनी राह तलाशते हुए... अपनी जगह बनाते हुए... अविरल बहता हुआ आ मिलेगा अपनी बिछड़ी धारा से...

जैसे एक फूल को सिर्फ़ छाया में रख के खिला नहीं सकते आप... उसे अपने हिस्से की धूप भी ज़रूर चाहिए होती है... ठीक उसी तरह एक रिश्ते को भी हर वक़्त आप ज़िन्दगी और परिस्थितियों की धूप से बचाए नहीं रख सकते... उसे इस धूप में जलना होता है और इसमें तप के ही कुंदन बनना होता है... बहुत ज़्यादा पानी और छाया में पेड़ की जड़ें गल जाती हैं.. पेड़ पनप नहीं पाता... और बहुत ज़्यादा मीठे फल में कीड़े पड़ जाते हैं... कहने के मायने बस इतने की अति हर चीज़ की बुरी होती है.. भले ही वो अच्छी चीज़ हो या अच्छे के लिए हो...

पौ फूटने से पहले अँधेरा सबसे गहरा होता है... बेहद डरावना और उदास... ऐसी स्याह तारीकी जो सब कुछ ख़ुद में छुपा ले, जज़्ब कर ले... पर सूरज की पहली किरण जब उसे चीरती हुई धरती पे पड़ती है तो चिड़ियाँ  चहक उठती हैं... फूल खिल जाते हैं... धरती पर एक बार फिर जीवन शुरू हो जाता है...

अँधेरा छंट चुका है... दिन एक बार फिर निकल आया है... 

आज अपने रिश्ते को सारे बन्धनों से मुक्त कर दिया है मैंने... उसे खुली हवा में फिर से साँस लेने की आज़ादी दे दी है... उसे पनपने और मज़बूत होने की जगह दी है... बस अब इसे प्यार की हलकी बौछार से सींचना है... आस पास उग आये घास पतवार को हटाना है और उसे एक बार फिर से ख़ूबसूरत बनाना है...

बोलो दोगे मेरा साथ ?


मैं छाँव छाँव चला था अपना बदन बचा कर

कि रूह को एक ख़ूबसूरत सा जिस्म दे दूँ
न कोई सिलवट, न दाग़ कोई
न धूप झुलसे, न चोट खाये
न ज़ख़्म छुए, न दर्द पहुँचे
बस एक कोरी कुँवारी सुबह का जिस्म पहना दूँ रूह को मैं

मगर तपी जब दोपहर दर्दों की,
दर्द की धूप से जो गुज़रा
तो रूह को छाँव मिल गयी है

अजीब है दर्द और तस्कीं का साँझा रिश्ता
मिलेगी छाँव तो बस कहीं धूप में मिलेगी

-- गुलज़ार

Friday, May 10, 2013

रहें न रहें हम महका करेंगे...!



वो सारे ख़त जो कभी हमने एक दूजे को लिखे थे... वो सारी बेवजह की बातें... वो साथ बिताये अनगिनत पल... वो हँसी वो खिलखिलाहट जो अब तलक गूंजा करती है यादों की पिछली गलियों में... वो सारी शरारतें वो अटखेलियाँ... वो रूठना मनाना वो हँसना रुलाना.... हर वो लम्हा जो बीत कर भी नहीं बीता... ठहर गया है दिल की ज़मीं पर... तुम्हारी यादों के सुर्ख धागे में लिपटे बीते लम्हों के वो सारे सूखे फूल जिनकी ख़ुश्बू मन की जाने कितनी तहों के नीचे महफूज़ है... उन्हें बड़े प्यार से सहेजा है यहाँ.. हर एक पल हर एक लम्हां... यहाँ इस वर्चुअल दुनिया में...

हमारे ख़्वाबों की... हमारी ख्वाहिशों की दुनिया.. ये हमारी वर्चुअल दुनिया... जिसने हमारे बीच कभी भी दूरी को आने नहीं दिया... मीलों दूर होते हुए भी हम एक दूसरे से हमेशा जुड़े रहे... साथ रहे.. पास रहे... कितनी ख़ूबसूरत दुनिया है न ये... याद है तुम कभी कहा करते थे ये दुनिया उस दुनिया से बहुत ख़ूबसूरत है हमें कभी यहाँ से जाने को मत कहना... हम यही रहेंगे हमेशा.. बस हम और तुम...

कभी सोचा है जान कल जब हम न होंगे तो हमारे इस वर्चुअल वजूद का क्या होगा... क्या वो वर्चुअल दुनिया की ख़लाओं में अकेले यूँ ही भटकता फिरेगा...  मेरे बाद तुम मुझसे कैसे जुड़े रह पाओगे... क्या होगा उन सारे ख़तों जो मेरे ईमेल खाते में अब भी जमा हैं... पिकासा अकाउंट में इकट्ठी करी उन सारी तस्वीरों का... चैट हिस्ट्री में जमा तुम्हारी मेरी बातों का... मेरी उन सारी ब्लॉग पोस्ट्स का जो तुम्हारी थीं तुम्हारे लिए थीं... तुम्हारी याद कि उन सारी चमकती गिन्नियों का जो इस मेरे गूगल अकाउंट की गुल्लक में जमा हैं... मेरा ये सारा ख़ज़ाना क्या यूँ ही लावारिस सा पड़ा रह जाएगा...

नहीं जान.. इस ख़ज़ाने को यूँ ही गुम नहीं होने दे सकती मैं.. इसलिए लो आज ये सब तुम्हारे नाम करती हूँ... गूगल इनएक्टिव अकाउंट मेनेजर को बता दिया है मैंने कि मेरे बाद इस ख़ज़ाने की चाभी तुम्हें दे दे... सुनो, मेरे बाद इसे सम्भाल के रखना... मेरी ज़िन्दगी भर की जमा पूँजी है इसमें... मेरे वो सारे बचकाने ख्व़ाब... मेरी बे-सिर-पैर की ख़्वाहिशें... जिन्हें तुमने बड़े प्यार से पूरा किया हमेशा वो सब यहाँ जमा हैं... कल जब मैं नहीं होऊँगी तो भी इसके ज़रिये मैं हमेशा तुम्हारे साथ रहूँगी... तुम्हारा हमसाया बन के !

Thursday, April 18, 2013

पिओनी और इनूरी के देस में...




नीले पॉपी के बगल से होकर
वो जो अलसायी सी पगडण्डी मुड़ती है न
ठीक उसी पर आगे बढ़ना
मील भर के फासले पर
आबशारों की इक टोली मिलेगी
सुना है पूरनमासी की रात
आसमां से परियाँ आती हैं वहाँ

थोड़ा आगे बढ़ने पर
शफ्फाक़ बर्फ़ का जज़ीरा मिलेगा
न न उसके रंग पर मत जाना
दिल का बड़ा पाजी है !
संभल संभल के चलना उस पर
ज़रा सा कोई फिसला गया तो
मुआं खिलखिला के हंस पड़ता है

वहां से कुछ ही दूर पर
अलसाई सी पीली पिओनी का झुण्ड
हरी घास पर धूप सेंकता मिलेगा
बस वहीं से दायें मुड़ना
संभल कर… आगे ढलान है
सामने रुई के फ़ाहे सा नर्म
बादलों का इक दरिया होगा

जानती हूँ, दिल करेगा
उस मखमली दरिया में
पैर डाल के बैठो कुछ देर
रस्ते की कुछ थकन उतारो
पर वो मायाजाल है
उसमें फँसना मत... आगे बढ़ना

ज़रा ध्यान से सुनोगे तो
पास बहती नदी की शरारत सुनाई देगी
उसकी अठखेलियों से लजाये
कुछ गुलाबी फूलों की कतारें
नदी के किनारे दूर तक फैली होंगी
तुम भी उनकी ऊँगली थाम बढ़ते आना

आगे लाल और सफ़ेद फूलों की
इक बस्ती मिलेगी
आजकल कुछ नाज़ुक नारंगी
मेहमां भी आये हैं उनके देस
आदतन सब के सब बैठे
गप्पें मार रहे होंगे देवदार तले
या फिर भँवरे और तितली का
वाल्ट्ज देखते होंगे !

उनसे मिल के आगे बढ़ोगे तो
ओस में भीगी सकुचाई सी इक
जामुनी इनूरी मिलेगी
पीले गुलाब की दीवानी है
पर वो निरा जंगली ठहरा
अब तक उसका मन न समझा !

आगे रास्ता थोड़ा संकरा है
थोड़ा सा पथरीला भी
कोहरे के धुंधलके में
परिन्दों की आवाज़ का पीछा करते
जुगनुओं से कुछ नूर उधार ले कर
अपनी राह तलाशते, ये सफ़र अब
तुम्हें ख़ुद तय करना होगा

कुदरत की इस नायाब पेंटिंग में
जहाँ सूरज अपनी सारी लाली
घाटी के नर्म गालों पर मल कर
उसकी आग़ोश में जज़्ब हो जाता है
पहाड़ी के उस अंतिम छोर पर
मैं मिलूँगी
धरती की इस जन्नत में
तुम्हारा इंतज़ार करती !

-- ऋचा 


* पॉपी, पिओनी, इनूरी - फूलों की घाटी में खिलने वाले ३०० फूलों में से तीन फूलों के नाम !

Thursday, April 4, 2013

उस मोड़ से शुरू करें फिर ये ज़िन्दगी...



Your Cheerful Looks Makes Day A Delight ! आज पलट के बीते सालों पे नज़र डालती हूँ तो यकीन नहीं होता... ये उसी लड़की के लिए कहा गया था कभी जो आज अपनों के लिए दुःख और उदासी का कारण बनी हुई है...

ये टाइटल ऐसे ही नहीं दिया गया था उसे क्लास ट्वेल्फ्थ की फेयरवेल पार्टी में... उसकी खुशमिज़ाजी ने उसे स्कूल कॉलेज, यार दोस्तों के बीच एक अलग पहचान दी हुई थी... बड़ी से बड़ी परेशानी में भी हमेशा ख़ुश और हँसती रहने वाली लड़की... वो कभी हर महफिल की जान हुआ करती थी जो आज ख़ुद से भी इतना कटी कटी रहती है... ख़ुद से ही नाराज़... कब वो इतना बदल गयी... उसकी वो हँसी कहाँ गायब हो गयी उसे भी कहाँ पता चला था...

बहुत चिड़चिड़ी हो गई थी वो... बात बात पे गुस्सा करने लगी थी... नाराज़ रहने लगी थी... लोग अक्सर उससे शिकायत करने लगे थे उसके स्वभाव को ले कर... पर जो लोग उसे अभी-अभी मिले थे वो उसे जानते ही कितना थे... वो हर किसी की शिकायत सुनती और चिढ़ जाती... एक अजीब सी खीझ भरती जा रही थी उसके मन में सबके प्रति... एक बेहद गहरी ख़ामोशी उसे घेरती जा रही थी जो सिर्फ़ उसे महसूस होती थी... वो ऐसी नहीं थी... वो ऐसी होना नहीं चाहती थी...

आज इतने सालों बाद जब ख़ुद को आईने में देखा तो पहचान नहीं सकी... ज़िन्दगी जाने कब उसका हाथ छुड़ा कर आगे बढ़ गयी... वो पीछे छूट गयी... बहुत पीछे... तन्हा... अकेली... किसी अनजाने से मोड़ पे... उसे बिलकुल भी समझ नहीं आ रहा था की वो अब क्या करे… ज़िन्दगी के सफ़र पर यूँ राह भटक जाना तकलीफ़देह होता है... पर ज़िदगी जीने की वजह का खो जाना... नृशंस !

जैसे कुछ टूट गया था उसके अन्दर... कुछ तो था जो मरता जा रहा था धीरे धीरे भीतर ही भीतर... एहसास सुन्न हो गए थे... दिमाग की सारी नसें जैसे सूज गयी थीं... सर दर्द से फटा जा रहा था... वो रोना चाहती थी... चीखना चाहती थी... शायद कुछ दर्द बह जाए आँसुओं के साथ तो जी थोड़ा हल्का हो... पर उसके एक दोस्त ने कभी उससे कहा था कि रोते तो कमज़ोर लोग हैं... उसका दिल हुआ वो आज पूछे उस दोस्त से... कभी कभी कमज़ोर पड़ जाना क्या इतना बुरा है... क्या ताक़तवर लोगों को तकलीफ़ नहीं होती कभी ?

उसकी ज़िन्दगी के सफ़र में बहुत से लोग आये... कहने को दोस्त पर कोई भी उसके साथ ज़्यादा दूर तक नहीं चला... हर रिश्ता उसे हमेशा टुकड़ों ही में मिला... कभी लोग उसके नज़दीक आये, कभी उसने लोगों को ख़ुद के नज़दीक आने का मौका दिया... पर अंत में ये उसकी अपनी ज़िन्दगी थी, उसका अपना सफ़र जो उसे अकेले ही तय करना था...

आज वो उदास है... बहुत उदास... इसलिए नहीं की वो अकेली पड़ गयी है... बल्कि इसलिए की उसने ख़ुद को कहीं खो दिया है... वो अब वो रह ही नहीं गयी है जो वो कभी हुआ करती थी... आज उस अनजान से मोड़ पे अकेली खड़ी वो ख़ुद को फिर से तलाशने की जद्दोजहद कर रही है... वो हताश है, निराश है, शायद थोड़ा डरी हुई भी... पर ज़िन्दगी आपके ख़्वाबों सी हसीन और आसान कब होती है... ख़ुशियों का सूरज हमेशा तो नहीं खिला रहता... ज़िन्दगी में कभी रात भी आती है… और रात के अँधियारे में ही तारे टिमटिमाया करते हैं... उसे भरोसा है ऐसा ही कोई तारा उसे भी मिलेगा... जो ख़ुद को वापस पाने की उसकी राह को रौशन करेगा...



Wednesday, February 20, 2013

आओ चलें अब तीन ही बिलियन साल बचे हैं, आठ ही बिलियन उम्र ज़मीं की होगी शायद !


आज जब तुम्हें अपने एक दोस्त के बारे में बता रही थी तो तुमसे सुना नहीं गया... बात को कैसे टाल गए थे तुम... जानते हो जान पूरे दिन में सबसे ज़्यादा ख़ुशी का पल था वो मेरे लिए... तुम्हारी आवाज़ में वो चिढ़ बड़ी प्यारी लग रही थी... बहुत दिनों बाद आज तुम्हारे अन्दर वो पज़ेसिव्नेस दिखी अपने लिये... बहुत दिनों बाद आज फिर से ख़ुद पे गुमाँ हुआ...!




किसी पीर फ़कीर की दरगाह पर बंधा मन्नत का लाल धागा... या दुआओं का फ़ज़ल... के तुम मिले थे इक रोज़ यूँ ही... अचानक...!

मेरी बेनूर तन्हाई में घोला था तुमने एक मुट्ठी रँग अपने प्यार का... और मैं लरज़ उठी थी इन्द्रधनुष के रंगों से सजी एक कोरी चुनर सी... मेरे होंठों पे चिपका दी थी तुमने एक मुस्कान बिलकुल अपनी मुस्कराहट की कार्बन कॉपी जैसी... और मिडास के जैसे छू के सुनहरी कर दिए थे वो सारे ख्व़ाब जो तैरा करते थे मेरी पलकों में... मेरी मामूली सी ज़िंदगी में अपनी तिलिस्मी साँसें फूँक कर कहाँ खो गये तुम... ओ मेरे मायावी दोस्त...!




जानते हो ख्व़ाब क्यूँ आते हैं हमें ? सब उस उपरवाले का किया धरा है... ये ख़ुदा भी ना... दिल तो दे दिया हमें.. ख्वाहिशें भी दे दीं... पर हर ख्वाहिश पूरी कर सकें ऐसी क़िस्मत नहीं दी... सो ख्व़ाब दे दिये... कि जी सकें हम वो सारे पल ख़्वाबों में जिन्हें हक़ीक़त में नहीं जी सकते...

ख़्वाबों के सोपान पे पैर रख, कल रात आई थी तुम्हारे पास चाँदनी की ऊँगली थामे... जाने क्या देख रहे थे सपने में तुम... बड़ी प्यारी सी मुस्कुराहट थी होंठों पे... जी चाहा उस पल को वहीं थाम दूँ... या क़ैद कर लूँ पलकों में वो प्यारी सी निश्छल मुस्कुराहट बिलकुल बच्चों सी मासूम... आह ! के ये कमबख्त ख़्वाहिशें पूरी कहाँ होती हैं... के ख्व़ाब ख्व़ाब ही हुआ करते हैं... हरे काँच कि चूड़ियों जैसे... शोख़, चमकीले, खनकते... और कच्चे !!!





दो नन्हीं मुलायम कोपलें... पहले पहल जब तोड़ के बीज का खोल... झाँकती हैं बाहर... और लेती हैं पहली साँस खुली फिज़ा में... तो बेहद मासूम होती हैं... बड़ी ही ऑप्टिमिस्टिक... चारों तरफ़ खुशहाली ही दिखती है उन्हें... नहीं जानती कि कितने दिन बच पायेंगी किसी के पैरों तले कुचले जाने से... तुमसे मिलने की उम्मीद भी गोया उन नाज़ुक कोपलों सी है... हर रोज़ फूट के निकलती है दिल के खोल से... हर शाम कुचल जाती है सच के पैरों तले... उदास होती है... नाकाम भी... ना-उम्मीद पर नहीं होती...!

हर शब इक उम्मीद सोती हैं... हर सहर नयी उम्मीद जगती है...!





कहते हैं आखें दिल का आईना होती हैं... लब झूठ बोल भी दें पर आँखें झूठ नही बोल पातीं... दो पल झाँक के देखो उनमें तो दिल के सारे गहरे से गहरे राज़ खोल देती हैं... तुम्हारी गहरी कत्थई आँखें भी बिलकुल किसी मरीचिका सी हैं... एकटक उनमें देखने की गलती करी नहीं किसी ने कि बस मोहपाश में बाँध के बिठा लेती हैं अपने ही पास...

जानते हो तुम्हारी आँखें बेहद बातूनी हैं... हर रोज़ रात के आखरी पहर तक बातों में उलझा के मुझे जगाये रखती हैं... हर दिन ऑफिस के लिये लेट होती हूँ मैं... देखना किसी दिन लिख ही दूंगी अटेंडेंस रजिस्टर में देर से आने कि वजह...!





कुछ अक्षर बिखरे हुए थे... बेतरतीब से... यहाँ वहाँ... तुम जो आये तो... उन्हें इक आकार मिला... अक्षर अक्षर शब्द बने... शब्द शब्द कविता, और कविता कविता ज़िन्दगी...

सुनो जान... तुम मुझसे यूँ रूठा न करो... तुम रूठते हो तो मेरे शब्द भी गुम हो जाते हैं कहीं... गोया तुम्हारा साथ मेरे कलम की रोशनाई हो... तुम चुप होते हो तो ये भी सूख जाती है... गोया मेरे सारे ख्याल तुम्ही से हैं... तुम नहीं होते तो एक वॉइड आ जाता है पूरे थॉट प्रोसेस में... शब्द उड़ते फिरते हैं दिमाग की ख़लाओं में... तुम्हारे साथ का गुरुत्व मिले तो शायद ठहरें वो मन की ज़मीं पर...!



Related Posts with Thumbnails