Saturday, October 13, 2012

आजा तेरे कोहरे में धूप बन के खो जाऊँ... तेरे भेस तेरे ही रूप जैसी हो जाऊँ !



मौसम ने फिर करवट ली है... सर्दी की ख़ुश्बू एक बार फिर फिज़ा में घुलती हुई सी महसूस होने लगी है... ठीक वैसे ही जैसे तुम्हारी ख़ुश्बू घुली हुई है मेरी साँसों में... कल ऑफिस से वापस आते वक़्त हवा में ठंडक थी... तुम्हें सोचते हुए जाने कब रास्ता कट गया तुम्हारे एहसास की गर्मी ने कितनी राहत पहुँचायी सारे रास्ते...

कितने दिन हो गए कुछ लिखा नहीं... आज दिल किया कुछ लिखूँ तो तुम्हारे सिवा और तुमसे बेहतर कोई दूसरा मौज़ू ही नहीं मिला... गोया मेरी लेखनी को भी प्यार हो गया है तुमसे...

तुमसे बात करना हमेशा ही दिल को एक सुकून दे जाता है... दुनिया भर की परेशानियों के बीच दो पल तुम्हारी आवाज़ रूह को ऐसे ठंडक पहुंचती है जैसे पसीने से भीगे बदन पर ठंडी हवा का झोंका... सारा तनाव सारी परेशानियाँ सब चंद लम्हों में ही काफ़ूर हो जाते हैं... सारे दिन की थकन के बाद तुमसे बात होती है तो यूँ लगता है मानो हर की पौड़ी पर बैठ कर संध्या आरती देख रहे हों... गंगा के ठन्डे पानी में पैर डाल के... तृप्ति !

जाने तुम्हारी आवाज़ का जादू है या तुम्हारे साथ का, पर कुछ तो ज़रूर है... कभी कभी तो जी करता है तुम्हें बिना बताये तुम्हारी आवाज़ का एक टुकड़ा चुरा कर रख लूँ अपने पास और फ़ुर्सत में उससे खूब सारी बातें किया करूँ...

जानते हो तीन दिन पहले एक सपना देखा था... हम साथ काम कर रहे थे एक ही ऑफिस में, एक ही बिल्डिंग में... पर तुम इस कदर मसरूफ़ थे कि एक पल के लिए बात करने का भी समय नहीं था... हम बस एक दूसरे को देख भर पा रहे थे... फिर सब काम छोड़ कर अचानक तुम मेरे पास आये... बोला कुछ भी नहीं बस मेरा हाथ पकड़ा था... तुम्हारा वो स्पर्श बिन कुछ बोले भी कितना कुछ कह गया था... उस एक स्पर्श में सहानुभूति थी, संवेदना थी, करुणा थी, समय न दे पाने की तकलीफ़ थी और सबसे बढ़ कर बेहद गहरा प्यार था... तीन दिन बाद भी सपने में महसूस किया वो तुम्हारे हाथों का स्पर्श अब भी अंकित है मन के पन्नों पर...

तुम ज़्यादा बोलते नहीं... तुम्हारे होंठ अक्सर ख़ामोश रहते हैं... पर तुम्हारी आँखें बेहद बातूनी हैं... जाने किस भाषा में बातें करती हैं मेरी आँखों से कि सीधे दिल तक पहुँचती है उनकी आवाज़... बहुत से ऐसे एहसास हैं जिन्हें महसूस तो किया है तुम्हारी आँखों के ज़रिये पर शब्दों में उनका तर्जुमा करना मुमकिन नहीं है... कहाँ से सीखी ये भाषा ? सीधे दिल पे दस्तक देने वाली !

जानते हो पहला अक्षर और पहली भाषा कैसे बने ? और संगीत का पहला सुर ? नहीं जानते ? आओ आज बताती हूँ तुम्हें...

आदि रचना
मैं - एक निराकार मैं थी

ये मैं का संकल्प था
जो पानी का रूप बना
और तू का संकल्प था
जो आग की तरह नुमाया हुआ
और आग का जलवा
पानी पर चलने लगा
पर वो परा-ऐतिहासिक समय की बात है

ये मैं की मिट्टी की प्यास थी
कि उसने तू का दरिया पी लिया
ये मैं की मिट्टी का हरा सपना था
कि उसने तू का जंगल खोज लिया
ये मैं की मिट्टी की गंध थी
और तू के अम्बर का इश्क़ था
कि तू का नीला सा सपना
मिट्टी की सेज पर सोया
ये तेरे और मेरे मांस की सुगंध थी
और यही हक़ीक़त की आदि रचना थी

संसार की रचना तो बहुत बाद की बात है !

आदि पुस्तक
मैं थी और शायद तू भी
शायद एक सांस के फासले पे खड़ा
शायद एक नज़र के अँधेरे पे बैठा
शायद एहसास के मोड़ पे चल रहा
पर वो परा-ऐतिहासिक समय की बात है

ये मेरा और तेरा अस्तित्व था
जो दुनिया की आदि भाषा बना
मैं की पहचान के अक्षर बने
तू की पहचान के अक्षर बने
और उन्होंने आदि भाषा की आदि पुस्तक लिखी

ये मेरा और तेरा मिलन था
हम पत्थर की सेज पर सोये
और आँखें, होंठ, उँगलियाँ, पोर
ये मेरे और तेरे बदन के अक्षर बने
और उन्होंने आदि पुस्तक का अनुवाद किया

ऋगवेद की रचना तो बहुत बाद की बात है !

आदि चित्र
मैं थी और शायद तू भी
मैं छाँव के भीतर थिरकती सी छाया
और तू भी शायद एक खाकी सा साया
अंधेरों के भीतर अंधरों के टुकड़े
पर वो परा-ऐतिहासिक समय की बात है

रातों और पेड़ों का अँधेरा था
जो तेरी और मेरी पोशाक थी
एक सूरज कि किरण आयी
वो दोनों के बदन में से गुज़री
और परे एक पत्थर पर अंकित हो गयी
सिर्फ़ अंगों की गोलाई थी,
चाँदनी की नोकें
ये दुनिया का आदि चित्र था
पत्तों ने हरा रँग भरा
बादलों ने दूधिया, अम्बर ने सिलेटी
और फूलों ने लाल, पीला, कासनी

चित्रों की कला तो बहुत बाद की बात है !

आदि संगीत
मैं थी और शायद तू भी
एक असीम खामोशी थी
जो सूखे पतों कि तरह झड़ती
या यूँ ही किनारों की रेत कि तरह घुलती
पर वो परा-ऐतिहासिक समय की बात है

मैं ने तुझे एक मोड़ पर आवाज़ दी
और जब तू ने पलट कर आवाज़ दी
तो हवाओं के गले में कुछ थरथराया
मिट्टी के कान कुछ सरसराये
और नदी का पानी कुछ गुनगुनाया
पेड़ की टहनियाँ कुछ कस सी गयीं
पत्तों में एक झंकार उठी
फूलों की कोपल ने आँख झपकाई
और एक चिड़िया के पंख हिले
ये पहला नाद था
जो कानों ने सुना था

सप्त सुरों की संज्ञा तो बहुत बाद की बात है !

आदि धर्म
मैं ने जब तू को पहना
तो दोनों के बदन अंतर्ध्यान थे
अंग फूलों की तरह गूंथे गये
और रूह की दरगाह पर अर्पित हो गये

तू और मैं हवन की अग्नि
तू और मैं सुगन्धित सामग्री
एक दूसरे का नाम होंठों से निकला
तो वही नाम पूजा के मन्त्र थे
ये तेरे और मेरे अस्तित्व का एक यज्ञ था

धर्म की कथा तो बहुत बाद की बात है !

आदि क़बीला
मैं की जब रुत गदराई थी
मांस के पौधे पर बौर आया था
पवन के आँचल में महक बंध गयी
तू का अक्षर लहलहाया था

मैं और तू की छाँव में
जहाँ "वह" आ कर निश्चिन्त सो गया
ये "वह" का एक मोह था
गेंहूँ का दाना हमने बाँट लिया
"वह" सहज था, स्वाभाविक था
मैं की और तू की तृप्ति

क़बीलों की कथा तो बहुत बाद की बात है !

आदि स्मृति
काया की हकीक़त से लेकर
काया की आबरू तक मैं थी
काया के हुस्न से लेकर
काया के इश्क़ तक तू था

यह मैं अक्षर का इल्म था
जिसने मैं को इख्लाक़ दिया
यह तू अक्षर का जश्न था
जिसने "वह" को पहचान लिया
भयमुक्त मैं की हस्ती
और भयमुक्त तू की, "वह" की

मनु स्मृति तो बहुत बाद की बात है !

-- अमृता प्रीतम

Saturday, August 18, 2012

वो जो शायर है...



कुछ तो ज़रूर है तुम्हारे शब्दों में कि हर वो शख्स जिसने एक बार भूले से भी पढ़ लिया तुम्हें, बकौल तुम्हारे, उसकी आदत बिगड़ ही जाती है... तुम्हारी नज़्में उँगली थामे ज़िन्दगी के हर मोड़ पर मिल जाती हैं... कभी बचपन के भेस में... कभी यादों के देस में... कभी चाँद पे सवार... कभी बादलों के पार... तुम्हारे अनोखे मेटाफ़र्स को जीने लगते हैं हम... हँसी सौंधी लगने लगती है... नैना ठगने लगते हैं... कभी जगते जादू फूंकती हैं तुम्हारी नज़्में कभी नींदे बंजर कर देती हैं...

कोई कोई दिन तो ऐसा भी आता है कि सुबह से शाम बस तुम्हारे गाने सुनते ही बीत जाता है... क़तरा क़तरा मिलती है क़तरा क़तरा जीने दो... फिर से आइयो बदरा बिदेसी... थोड़ी सी ज़मीं थोड़ा आसमां... तेरे बिना ज़िन्दगी से कोई शिक़वा तो नहीं... तुम आ गये हो नूर आ गया है... तुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी... ओ माझी रे... ऐ ज़िन्दगी गले लगा ले... दिल ढूंढता है फिर वही फ़ुर्सत के रात दिन... तुम सारा दिन यूँ ही घेरे रहते हो और हम कहते हैं आज कैफ़ियत बड़ी गुल्ज़ाराना है... जलन भी होती है कभी तुमसे... कितने चाहने वाले हैं तुम्हारे... इतनी शिद्दत से परस्तिश करते हैं तुम्हें कि एक नया धर्म ही बना दिया है तुम्हारे चाहने वालों ने - गुल्ज़ारियत !

जानते हो तुम्हारे नाम का एक फोल्डर हर उस कम्प्यूटर, फ़ोन और आईपॉड में बना हुआ है जिसे हम इस्तेमाल करते हैं... और हाँ किसी से कहना नहीं पर हमारा दोस्त ना जलता है तुमसे :) हमारा ही क्या हर उस लड़की का जो तुम्हें पसंद करती है... तुम्हारी नज़्मों में हर इक रिश्ते को जिया है हमने... जब कभी चल गुड्डी चल पक्के जामुन टपकेंगे चिल्लाते हुए रौशन आरा खेत कि जानिब भागते हो तो बचपन का कोई भूला बिसरा दोस्त याद आ जाता है जिसके साथ जाने कितनी ही दोपहरें ऐसी बचकानी हरकतें करते बिताई हैं... जब कहते हो बोस्की बेटी मेरी, चिकनी-सी रेशम की डली तो लगता है जैसे खुद हमारे पापा हमें आवाज़ लगा रहे हों...

बोस्की में तुम्हारी जान बस्ती है ना... जानती हूँ... उसे दो चोटियाँ बना के स्कूल जाना होता था और वो भी एक बराबर कोई छोटी बड़ी नहीं होनी चाहिये... तो तुमने चोटी बनाना सीखा बोस्की के लिये... हर साल उसके जन्मदिन पर ख़ास उसके लिये लिखी कविताओं कि एक किताब उसे गिफ्ट किया करते थे.. बोस्की का पंचतंत्र... और तुम्हारे घर का नाम भी तो बोस्कियाना है ना...

लोगों को शायद नहीं पता कि तुम्हें टेनिस खेलना कितना पसंद है... और आज भी सुबह उठ कर तुम टेनिस ज़रूर खेलते हो... और क्या पसंद है तुम्हें ? बैगन बिलकुल भी नहीं पसंद खाने में :) है ना ? हाँ, कलफ़ किया हुआ सफ़ेद कुर्ता पायजामा बहुत पसंद है तुम्हें, जिसे तुमने अपना सिग्नेचर स्टाइल बना लिया है... कलफ़ भी इतना कड़क कि जाने कितने कुर्ते तो पहनते वक़्त ही शहीद हो गये :) तुम्हारी नज्में भी तुम्हारे कुर्ते कि तरह ही हैं कभी सीधी सपाट चिकनी तो कभी उसकी सलवटों की तरह ही पेचीदा...

जब सुनती हूँ की तुम मीना कुमारी के लिये पूरे रमजान रोज़े रखते थे सिर्फ़ इसलिए कि उनकी तबियत नासाज़ थी और वो रोज़े ना रख पाने कि वजह से बेहद उदास थीं, तो दिल से दुआ निकलती है कि ऐसा दोस्त सबको मिले... और जब कहते हो मैं अकेला हूँ धुँध में पंचम तो जी करता है तुम्हारे दोस्त को कहीं से भी ढूँढ़ के वापस ला दूँ तुम्हारे पास... तुम्हारी और पंचम की क्या कमाल की जोड़ी थी... वो संगीत के साथ एक्सपेरिमेंट करते थे और तुम शब्दों के साथ... कितने गाने तो ऐसे खेल खेल में ही बन जाते थे... तुम्हारा कोई फ्रेज़ पसंद आता उन्हें तो कहते थे इसे इलैबोरेट करो... और करते करते पूरा गाना बन जाता था... तुमने भी तो पंचम के कितने बंगाली गानों की धुनें चुरा कर उस पर अपने बोल लिख दिये...



तुमसे जब बात नहीं होती किसी दिन और तुम ख़ामोश, उदास से हो जाते हो तो जी करता है तुम्हारे गले में बाहें डाल कर गुदगुदा कर पूछूँ तुम्हें कहो यार कैसे हो ?

बरसों पहले जब उर्दू का एक हर्फ़ भी समझ नहीं आता था तो तुमने ग़ालिब को हमसे मिलवाया था अपने सीरिअल के ज़रिये... पंजाबी नहीं आती थी तो तुमने अमृता से मिलवाया उनकी नज़्में पढ़ के... ये तुम्हारी आवाज़ का ही जादू था कि पंजाबी सीखने समझने कि इच्छा हुई... और अब टैगोरे से मिलवाने जा रहे हो उनकी लिखी बंगाली कविताओं का तर्जुमा कर के... इतना कुछ करते रहते हो हम सब के लिये कि जी करता है तुम्हारी पीठ थपथपा दूँ...

तुम शब्दों के जादूगर तो हो ही... पर तुम्हारी फिल्मों में ख़ामोशियाँ भी बोलती हैं ये "कोशिश" के ज़रिये तुमने साबित कर दिया... जहाँ मौन ना सिर्फ़ बोला, उसने लोगों के दिलों को छुआ भी और उन्हें रुलाया भी... कैसे कर पाते हो ऐसा... कैसे इतनी आसानी से समझ पाते हो इतने पेचीदा इन्सानी रिश्तों को...

कितने ग्रेसफुल लगते हो आज भी सफ़ेद कुर्ते, सफ़ेद बालों, पकी हुई दाढ़ी और मोटे फ्रेम के चश्मे में... तुम्हें देखती हूँ तो लगता है कि हमारे बाबा होते तो ऐसे ही दिखते शायद... दिल करता है कभी कि बढ़ कर चरण स्पर्श कर लूँ तुम्हारे... और आशीर्वाद ले लूँ उनकी तरफ़ से... तो कभी दिल करता है सिर पे हाथ फेर के ढेर सारी दुआएँ दूँ तुम्हें... हमेशा स्वस्थ रहो और अपनी नज़्मों और गीतों से अपने चाहने वालों के दिल ऐसे ही गुलज़ार करते रहो सदा...

जन्मदिन बहुत मुबारक़ हो गुलज़ार साब !

(राज्य सभा टी.वी. पर प्रसारित हाल ही में इरफ़ान जी द्वारा लिया गया गुलज़ार साब का इंटरव्यू)

Wednesday, August 15, 2012

मिस यू बाबा !



मैंने कभी उनकी उँगली पकड़ कर चलना नहीं सीखा... कभी तोतली ज़ुबान में उनसे कोई ज़िद नहीं की... उनकी गोद में चढ़ कर कभी चंदा मामा को नहीं देखा... कभी उन्हें घोड़ा बना कर उनकी पीठ पर नहीं बैठी... बहुत कम याद आते हैं वो... या शायद हम याद भी उन्हें ही करते हैं जिनसे कभी मिले होते हैं... ज़्यादा ना सही कम से कम एक बार तो... कभी कभी सोचती हूँ कि कभी मिलती उनसे तो क्या बुलाती उन्हें.. दादाजी, दद्दू या बाबा... हाँ, शायद "बाबा" ही बुलाती...

वो याद तो नहीं आते बहुत पर जब भी किसी छोटे बच्चे को अपने बाबा के साथ हँसता, मुस्कुराता, खेलता हुआ देखती हूँ तो एक अजीब सी क़सक उठती है मन में... जैसे ज़िन्दगी की जिगसॉ पज़ल का एक ज़रूरी हिस्सा खो गया हो कहीं... और उसके बिना वो अधूरी ही रहेगी हमेशा चाहे बाक़ी के सारे हिस्से सही सही जोड़ दिये जाएँ... जैसे अम्मा बाबा से कहानी सुनना हर बचपन का हक़ हो और हमसे वो हक़ छीन लिया हो किसी ने...

आइये आज आपको अपने बाबा से मिलवाती हूँ... उनसे जिनसे ख़ुद मैं भी नहीं मिली कभी... सिर्फ़ सुना है उनके बारे में... और इस तस्वीर में देखा है बस... हमारे घर में बाबा कि बस ये ही एक तस्वीर है और ये भी खींची हुई फोटो नहीं है बल्कि पेंट की हुई तस्वीर है... बचपन से बाबा को इस तस्वीर में ही देखा है बस... स्वर्गीय श्री तुलसी राम गुप्ता... हमारे बाबा... आज जब हम अपना ६६वां स्वतंत्रता दिवस मना रहे हैं तो बेहद गर्व होता है ये सोच कर कि हमारे बाबा एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे...

बुआ बताती हैं कि उस ज़माने में कांग्रेस कमेटी का दफ़्तर हमारे ही घर में हुआ करता था... आये दिन मीटिंग्स होती थीं... जाने कितनी ही बार जेल भरो आन्दोलन में बाबा जेल गये... महीनों जेल में रहे... कितनी ही बार लाठी चार्ज हुआ... इसी सब के चलते उन्हें पेट की कोई ऐसी बीमारी हो गई थी जिसे समय पर डाइग्नोज़ नहीं किया जा सका और वो हम सब को छोड़ कर चले गये... उस वक़्त पापा सिर्फ़ हाई स्कूल में थे...

बाबा के बारे में जितना भी सुनते हैं पापा और बुआ से उतना ही ज़्यादा उन पर गर्व होता है और उनसे मिलने का मन करता है... आज से तकरीबन एक सदी पहले भी वो कितनी खुली विचारधारा के इन्सान थे... उस वक़्त जब घर की स्त्रियों को घर से बाहर निकलने की भी आज़ादी नहीं थी वो अम्मा को अपने साथ पार्टी की मीटिंग्स में ले जाया करते थे... अपनी बेटियों और बेटों में कभी कोई फ़र्क नहीं किया उन्होंने... सबको हमेशा ख़ूब पढ़ने के लिए प्रेरित किया... बुआ लोगों के लिये भी कहते थे की ये सब हमारे बेटे हैं... और उस ज़माने में भी साड़ी या सलवार कुर्ते के बजाय सब के लिये पैंट शर्ट सिलवाते थे... बुआ बताती हैं गाँव में जहाँ हमारा घर था वहाँ आस पास के लोग अपनी लड़कियों को उन लोगों के साथ खेलने नहीं देते थे ना ही हमारे घर आने देते थे... कहते थे कि इनके पिताजी जेल का पानी पी चुके हैं इनके घर का कुछ मत खाना... हँसी आती है आज उन लोगों की सोच पर... ख़ैर...

आज स्वतंत्रता दिवस पर जाने क्यूँ बाबा की बहुत याद आ रही है... और हमारे देश की सभ्यता और संस्कृति को दीमक की तरह चाट कर खोखला करते जा रहे भ्रष्टाचार, अराजकता और उन तमाम बुराइयों को देख कर उन सभी लोगों और उनके परिवारों के लिये तकलीफ़ हो रही है जिन्होंने देश को आज़ाद करने के लिये अपने प्राणों की बलि दी... उन हज़ारों, लाखों लोगों की क़ुर्बानी का ये सिला दे रहे हैं हम ?

आज की युवा पीढ़ी के लिये क्या मतलब रह गया है १५ अगस्त का... बस एक और छुट्टी का दिन... अपने मोबाइल में वंदे मातरम् की रिंग टोन लगा लेने का दिन या तिरंगे वाला टैटू लगा कर फेसबुक पर नई प्रोफाइल पिक्चर उपलोड कर लेने का दिन... दोस्तों को देशभक्ति के एस.एम.एस. भेज देने का दिन या बहुत हुआ तो एक पूरा दिन देशभक्ति के गाने सुन लेने का दिन... बस इतना ही ना... देशभक्ति का जज़्बा भी फैशन स्टेटमेंट बनता जा रहा है... सिर्फ़ एक दिखावा...

देशभक्ति ही सीखनी है तो उन सैनिकों से सीखिए जो सालों साल हर मौसम, हर पहर, हज़ारों मुश्किलों से जूझते हुए भी हमारी, आपकी और सबसे बढ़कर अपने देश की, अपनी मातृभूमि की रक्षा करने के लिये सीमा पर डटे रहते हैं... जिनके लिये देशभक्ति महज़ २६ जनवरी, १५ अगस्त और २ अक्टूबर को उमड़ने वाला जज़्बा नहीं है... आइये हम भी उन जैसे बनते हैं जिनके लिये देशभक्ति ही उनके जीने का अंदाज़ है...!

जय हिंद... जय हिंद की सेना...!!!

Monday, July 23, 2012

ये शहर लालाज़ार है यहाँ दिलों में प्यार है, जिधर नज़र उठाइये बहार ही बहार है !


ये लखनऊ की सरज़मी

१६ जुलाई २०१२, दिन सोमवार, समय सुबह के ६.३० बजे.

बहुत ही ख़ुशनुमा सुबह थी... सारी रात हुई बारिश के बाद उजली, धुली हुई सी सुबह... हवा में हल्की नमी और बूंदों की ख़ुश्बू... पेड़, पौधे, पंछी सब ख़ुशी से चहचहाते हुए... एक ऐसी सुबह जिससे बाहें फैला के गले मिलने का दिल करे... ऐसी सुबह जो आपको आपके शहर से फिर प्यार करने पर मजबूर कर दे... और फिर हमारा शहर तो यूँ भी हमारी जान है... किसी शायर ने क्या ख़ूब कहा है हमारे लखनऊ के बारे में...

ये शहर रहा होगा शाइस्ता मिज़ाजों का
इस शहर के मलबों से गुलदान निकलते हैं 



हुसैनाबाद दरवाज़ा

तो सुबह सुबह हम भी चल दिये अपने शहर से मिलने... जैसा की पिछली एक पोस्ट में बताया था बड़े दिनों से मन हो रहा था पुराने लखनऊ घूमने का... तो एक रात पहले ही प्लान फाइनल हुआ और सुबह सवेरे ही हम निकल पड़े... हम, भाई और उसके दो दोस्त... क़रीब सात बजे हम घर से निकले... और सबसे पहले पहुँचे हुसैनाबाद बाज़ार... भाई के एक दोस्त को बहुत ज़ोर से भूख लगी थी बोला रात में भी खाना नहीं खाया... पहले नाश्ता करेंगे फिर कहीं चलेंगे :) तो वो लोग टूट पड़े पूड़ी सब्ज़ी पर और हमने उतनी देर में हुसैनाबाद बाज़ार की तस्वीरें लीं... हुसैनाबाद के बारे में बताते चलें कि नवाबों ने यहाँ बहुत सी इमारते बनवायीं जिसमें छोटा इमामबाड़ा (जहाँ हमें भी जाना था पर जा नहीं पाये), हुसैनाबाद बाज़ार, दो ख़ूबसूरत दरवाज़े, घंटा घर और सतखंडा प्रमुख हैं...

कुड़िया घाट

नाश्ता करने के बाद हम पहुँचे कुड़िया घाट... १९९० में इस घाट का पुनर्निर्माण करवाया गया था... सुबह के शान्त माहौल में वहाँ गोमती नदी में बोटिंग करना एक अनोखा अनुभव था... माना जाता है की गोमती नदी गंगा से भी पुरानी है इसलिए इसे "आदि गंगा" भी कहा जाता है... गोमती नदी पर बना पक्का पुल या लाल पुल जिसे हार्डिंग ब्रिज भी कहते हैं बहुत सी फिल्मों में दिखाया गया है... अगर आप दिमाग़ पर थोड़ा सा ज़ोर डालें तो याद आएगा कि हाल ही में आयी तन्नु वेड्स मन्नू और इशकज़ादे में भी इसे दिखाया गया है... १९१४ में बना तकरीबन सौ साल पुराना वास्तुशिल्प की मिसाल ये पुल आज भी उसी शान से खड़ा है और रोज़ सैकड़ों वाहन आज भी इसके ऊपर से गुज़रते हैं...

पक्का पुल

टीले वाली मस्जिद


इसी पुल के एक सिरे पर स्थित है आलमगिरी मस्जिद जिसे हम टीले वाली मस्जिद के नाम से भी जानते हैं...  इसका निर्माण औरंगज़ेब ने १५९० में करवाया था... इसके पास में ही बड़ा इमामबाड़ा या आसिफ़ी इमामबाड़ा (जिसके बारे में पिछली पोस्ट में भी बताया था) और रूमी दरवाज़ा हैं... बड़ा इमामबाड़ा जाना इस बार भी रह गया... पर उसका कोई गिला नहीं क्यूँकि हमने वो देखा जो शायद किस्मत से ही देखने को मिलता है... रूमी दरवाज़े के ऊपर से पुराने लखनऊ का नज़ारा !!

बड़ा इमामबाड़ा और आसिफ़ी मस्जिद


रूमी दरवाज़ा
बीते दिनों में कुछ एक हादसों के चलते रूमी दरवाज़े के अंदर जाने का रास्ता लोहे की फेंस लगा के पूरी तरह से बन्द कर दिया गया है... पर सुबह का समय था तो सड़क पर और आसपास भीड़ भी कम थी... बस फिर क्या था हम सब कूद-फांद के पहुँच गये दरवाज़े के अन्दर... क्या ख़ूबसूरत इमारत है... अवधी वास्तुकला का बेजोड़ नमूना... नवाबों को मानना पड़ेगा... एक से बढ़कर एक इतनी ख़ूबसूरत इमारतों की सौगात दे कर गये हैं लखनऊ को कि दिल से बस वाह निकलती है उनके लिये !

रूमी दरवाज़े की उपरी मंज़िलें
सन १७८४ में बने इस दरवाज़े के नीचे से जाने कितनी ही बारगुज़रे होंगे... हमेशा ख़ूबसूरत भी लगा पर इतना ख़ूबसूरत होगा असल में ये उस दिन पता चला... क़रीब ६० फिट ऊँचे इस दरवाज़े के ऊपर बनी अष्टकोण छतरी पर जब पहुँचे तो इतने सारे जीने चढ़ के आने की थकान एक पल में गायब हो गई... एक ओर बहती गोमती नदी और दूसरी ओर बड़ा इमामबाड़ा... पीछे बैकड्रॉप में दिखता हुसैनाबाद का घंटा घर, सतखंडा, हुसैनाबाद के दरवाज़े, जुमा मस्जिद और भी जाने क्या क्या... लखनऊ बेहद ख़ूबसूरत नज़र आ रहा था वहाँ से... क़रीब एक घंटे तक वहाँ बैठे रहे... इतनी ठंडी हवा लग रही थी की वापस जाने का मन ही नहीं हो रहा था किसी का..

ख़ैर वहाँ से निकले तो क़रीब १०.१५ हो रहा था... अब तक हमें भी भूख लग आयी थी थोड़ी थोड़ी और बाक़ी सब को दुबारा से :) तो हम जा पहुँचे चौक... श्री की मशहूर लस्सी पीने और छोले भठूरे खाने... क़रीब २० मिनट के ब्रेक के बाद हम सब की एनर्जी फिर से रीचार्ज हो गई थी... अब सोचा गया कि आगे कहाँ जाएँ... धूप हो गई थी तो इमामबाड़ा जाने का किसी का मन नहीं हो रहा था... फिर तय हुआ की काकोरी चलते हैं... बेहता नदी का पुल देखने...

बेहता पुल के पास बना शिव मन्दिर
क़रीब आधे घंटे बाद वहाँ पहुँचे... चारों तरफ़ आम के बाग़ों से घिरी वर्ल्ड मैंगो बेल्ट में :) यहाँ का मशहूर दशहरी आम पूरी दुनिया में निर्यात किया जाता है... बेहता नदी का पुल और उसके पास बने शिव जी के प्राचीन मंदिर का निर्माण १७८६-८८ में नवाब आसिफ़-उद-दौला के कार्यकाल में उनके प्रधानमंत्री टिकैत राय ने करवाया था... अगर आपको याद हो तो फिल्म शतरंज के खिलाड़ी और शशि कपूर द्वारा निर्देशित फिल्म जुनून के कुछ दृश्यों का फिल्मांकन भी यही हुआ है... यहाँ पास में ही वो रेल की पटरी भी है जहाँ 9 अगस्त १९२५ का मशहूर काकोरी कांड हुआ था... जिसमें राम प्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाकउल्ला खान और उनके साथियों ने मिल कर ट्रेन लूटी थी...

मंदिर में दर्शन करने और पेड़ से आम तोड़ कर खाने के बाद हम लौटे अपने घर की ओर और क़रीब १ बजे हमारा उस दिन का लखनऊ भ्रमण पूरा हुआ... अब अगली बार पक्के से आप सब को इमामबाड़ा घुमाना है... जल्द ही चलते हैं फिर... ऐसी ही किसी फ़ुर्सत वाली सुबह :)



तब तक के लिये बस इतना कहना है अपने लखनऊ के भाई बंधुओं से कि बुरा लगता है तेज़ी से बदलती जा रही लखनऊ की फिज़ा को देख कर... सारी दुनिया जिसकी तमीज़ और तहज़ीब की कायल है, अवध की वो संस्कृति हमारी ही धरोहर है और हमें ही उसे बनाए रखना है और सँवार कर आगे आने वाली पुश्तों तक भी पहुँचाना है... आइये मिल कर इस संस्कृति को कायम रखते हैं जिससे आगे आने वाली पुश्तें भी शान से कह सकें... मुस्कुराइए कि आप लखनऊ में हैं !



(ऑडियो साभार : रेडियो मिर्ची एफ एम चैनल)

कुछ और तस्वीरें  --

हुसैनाबाद घंटा घर

कुड़िया घाट

गोमती नदी

रिफ्लेक्शन !

आइसोलेटेड !

माझी बगैर नैया

लाल पुल के नीचे से गुज़रते हुए

लाल पुल

बड़े इमामबाड़े का मुख्य दरवाज़ा

रूमी दरवाज़े से दिखती गोमती नदी

हुसैनाबाद दरवाज़ा, दाहिनी ओर सतखंडा और घंटा घर

बड़े इमामबाड़े में स्थित आसिफ़ी मस्जिद

बड़े इमामबाड़े का भीतरी दरवाज़ा

बड़ा इमामबाड़ा

रूमी दरवाज़े से दिखता बड़ा इमामबाड़ा

रूमी दरवाज़े से दिखता बड़ा इमामबाड़ा
रूमी दरवाज़े से दिखती आसिफ़ी मस्जिद की मीनारें

रूमी दरवाज़े के भीतर बने दरवाज़े
रूमी दरवाज़ा (पीछे से)
बेहता नदी का पुल
(सभी तस्वीरों को बड़ा कर के देखने के लिये उन पर क्लिक करें)

Wednesday, July 11, 2012

सूना पड़ा है तेरी आवाज़ का सिरा...



हमारे बीच मीलों लम्बी दूरी थी... हम एक दूसरे को देख नहीं सकते थे... बस सुन सकते थे... एक पुल था हमारे दरमियाँ... लफ़्जों का... जिसके एक सिरे पर तुम थे और दूसरे सिरे पर मैं... तुम्हारी आवाज़ को ही एक शक्ल दे दी थी मैंने... तुमने भी शायद वही किया हो... जब पहली बार सुना था तुम्हें... तो लगा था जैसे मेरी ही आवाज़ की परछाईं है... जैसे किसी पहाड़ी पर चढ़ कर आवाज़ लगाई हो और ख़ुद अपनी ही आवाज़ का अनुनाद सुनाई दिया हो...

हम रोज़ उस पुल पे जाते... जाने कब, बिना कुछ कहे, हमने एक वक़्त तय कर लिया था मिलने का... सूरज उगने का अब बेसब्री से इंतज़ार रहने लगा... सुबह के पहले पहर ही हम उस पुल पर जा बैठते... मैं अपने सिरे पर रहती और तुम अपने... जाने क्या तो बातें किया करते हम... दुनिया जहान की...पर उन बे-सिर-पैर की बातों में भी कितना नशा था... हमें होश ही नहीं रहता की कब सुबह से शाम हुई... लगता सूरज अभी तो उगा था... अभी डूब भी गया... हम पुल से लौट आते पर अगली सुबह फिर वापस आने के लिये...

मीलों की दूरी को उस पुल ने बेमानी कर दिया था... हमारे बीच आवाजों का सफ़र सालों यूँ ही चलता रहा... फिर एक दिन वो सफ़र थम गया... तुम नहीं आये... मैं रोज़ की तरह अपने सिरे पर बैठी सारा दिन इंतज़ार करती रही... वो दिन कितना लम्बा था... लगा जैसे सूरज भी तुम्हारे इंतज़ार में डूबना भूल गया हो... फिर हर गुज़रते दिन के साथ समय का ये चक्र गड़बड़ाता ही गया... सुबहें अब सूरज के साथ नहीं आती थीं... कभी दिन के तीसरे पहर तो कभी चौथे पहर आतीं... और कभी कभी तो जैसे सुबह आना भूल ही जाती, बस रात ही आती... तन्हा, गुमसुम...

इंतज़ार बोझिल हो चला है... बातों का वो कल-कल बहता झरना अब सूख गया है... लफ़्जों का पुल धीरे धीरे कमज़ोर पड़ने लगा है... आवाजों की शक्लें भी धुंधली हो गई हैं... मुझे कुछ नहीं दिखता... मेरी आवाज़ भी शायद अब नहीं पहुँचती तुम तक... तुम्हें सुनाई देती है? मेरी आवाज़ अब मुझ तक लौट कर नहीं आती... तुम्हारे सिरे पर कोई ब्लैक होल उग आया है क्या ?

मैं अब भी आती हूँ उस कमज़ोर हो चले पुल पर... हर रोज़... तुम्हारी आवाज़ का एक कतरा ढूंढ़ते... पुल से नीचे झाँकती हूँ तो बेहद गहरी खाई है निर्वात की... सामने देखती हूँ... तुम नहीं दिखते... हमारे बीच फिर मीलों लम्बी दूरी है...  इस धुँध के परे कोई भी आवाज़ नहीं है... मैं अब भी इंतज़ार करती हूँ... तुम आओगे क्या कभी... फिर मेरी आवाज़ का हाथ थामने ?


शब्दों का एक चक्रवात सा उठता है
हर रोज़, मेरे भीतर कहीं
बहुत कुछ जो बस कह देना चाहती हूँ
कि शान्त हो सके ये तूफ़ान

जाने पहचाने चेहरों की इस भीड़ में लेकिन
एक भी ऐसा कांधा नहीं
जो मेरी आवाज़ को सहारा दे सके
कि निकल सके बेबसी का ग़ुबार

उमस बढ़ती है अंतस की
तो शोर वाष्पित हो आँखों तक जा पहुँचता है
बहरा करती आवाज़ में गरजती है घुटन
बारिशें भी अब नमकीन हो चली हैं

आवाज़ की चुभन महसूस करी है कभी ?
या ख़ामोशी की चीख ?
भीतर ही भीतर जैसे छिल जाती हैं साँसें
कराहती साँसों की आवाज़ सुनी है ?

कभी रोते हुए किसी से इल्तेजा की है ?
कि बस चंद लम्हें ठहर जाओ मेरे पास
सुन लो मुझे दो पल
कि मैं शान्त करना चाहती हूँ ये बवंडर

कि मैं सोना चाहती हूँ आज रात
जी भर के...!

-- ऋचा

Thursday, July 5, 2012

तुम बिन आवे न चैन... रे साँवरिया...!



- मैं क्यों उसको फ़ोन करूँ ! उसे भी तो इल्म  होगा कल शब मौसम की पहली बारिश थी

- ये क्या बड़बड़ा रही हो ?

- तुम्हें क्या ?

- अरे बताओ तो...

- नहीं बताना... बातचीत बंद है तुमसे...

- ठीक है मत बताओ फिर...

- हाँ तो कहाँ बता रहे हैं... वैसे भी तुम्हें क्या फ़र्क पड़ता है हम बोलें या न बोलें...

- सो तो है :)

- ह्म्म्म... जाओ फिर काम करो अपना... क्यूँ बेकार में टाइम वेस्ट कर रहे हो...

- अच्छा... जाता हूँ... बाय...... बाय....... अब बाय का जवाब तो दे दो...

- क्यूँ... नहीं देंगे जवाब तो क्या नहीं जाओगे ?

- नहीं जाऊँगा तो तब भी... पर जवाब दे दोगी तो खुश हो के जाऊँगा... काम करने में मन लगेगा...

- ह्म्म्म... तुम्हें फिक्र है क्या हमारी ख़ुशी की... हम क्यूँ करें फिर...

- जाऊं फिर ?

- तुम्हारी मर्ज़ी...

- सच में जाऊं ?

- बोला न... तुम्हरी मर्ज़ी... मेरी मर्ज़ी का वैसे भी कब करते हो...

- हम्म... जा रहा हूँ फिर... बाय...

- रुको... वो मैकरोनी और कॉफी जो बनायी है उसका क्या होगा ? खा के जाओ...

- :)

- हँसो मत... रोक नहीं रहे हैं... खा के चले जाना... हमने भी नहीं खायी है अभी तक... बड़े मन से बनायी थी...

- :):):)

- बुरे हो सच में... बहुत बुरे... रोज़ लड़ते हो... रोज़ रुलाते हो... बुरा नहीं लगता तुम्हें...

- नहीं... मज़ा आता है तुम्हें गुस्सा दिलाने में... रुलाने में... :)

- हम्म... अच्छा सुनो... ये झगड़ा बरसात भर के लिये पोस्टपोन कर देते हैं... बारिशें तुम्हारे बिना बिलकुल अच्छी नहीं लगतीं...

- :)

- :)

- अच्छा अब तो बता दो... वो सब क्या था? वो पहली बारिश.. फ़ोन.. इल्म.. ???

- कुछ नहीं... बहुत बहुत बुरे हो तुम :):):)

- अरे बताओ तो...

- क्यूँ बतायें...

- ..........

- ..........



Tuesday, July 3, 2012

मेटामॉर्फसिस !



तुम्हारा भरोसा देता है मुझे पंख
और मैं तब्दील हो जाती हूँ
एक नन्ही सी चिड़िया में
सारा साहस समेट कर
भरती हूँ उड़ान, तो लगता है
आस्मां भी कुछ नीचे आ गया है

तुम्हारा भरोसा भर देता है मुझे
विश्वास से
उग आते हैं मेरे डैने
और मैं बन जाती हूँ नन्ही सी मछली
जो तमाम व्हेल मछलियों से बचते हुए
पार कर सकती है प्रशांत महासागर भी

तुम्हारा प्यार कर देता है लबरेज़ मुझे
ख़ुश्बू से
ख़िल जाती हैं नई कोपलें
नर्म पंखुड़ियों सी महक उठती हूँ मैं
गुलज़ार हो जाता है मेरा अस्तित्व
आशाएं तितलियाँ बन मंडराने लगती हैं

तुम रखते हो हाथ मेरी पलकों पे
तो भर जाता है रंग मेरे सपनों में
तुम्हारा भरोसा मेरे सपनों के साथ मिल
शिराओं में दौड़ते रक्त को
कर देता है कुछ और सुर्ख़
लाली से लबरेज़, खिल उठती हूँ मैं

आँखें कुछ खट्टा खाने को मचल रही हैं इन दिनों
लगता है नींद फिर उम्मीद से है
फिर कोई ख़्वाब जन्म लेने को है !

-- ऋचा



( धुन पियानो पर यिरुमा की - "ड्रीम")

Sunday, June 24, 2012

चलो ना भटकें लफ़ंगे कूचों में, लुच्ची गलियों के चौक देखें...


23 जून 2012. बहुत बेचैन शाम थी आज... मन किसी पिंजरे में क़ैद पंछी के जैसे छटपटा रहा था... बस पिंजरा तोड़ के उड़ जाना चाहता था... खुली फिज़ा में साँस लेने को बेचैन... शाम के क़रीब पौने सात बज रहे थे... सूरज ढल चुका था... रात अभी हुई नहीं थी... "ना अभी रात ना दिन, ना अँधेरा ना उजाला" वाली स्थिति थी... किसी काम में मन नहीं लग रहा था... कुछ समझ नहीं आ रहा था की क्या करें कि इस बेचैनी से राहत मिले... तो एक्टिवा निकाली और बस चल दिये... मम्मी ने पूछा कहाँ जा रही हो... अब पता हो तब तो बतायें... बोला, मन नहीं लग रहा... ऐसे ही जा रहे हैं लखनऊ की सड़कें नापने... ख़ैर निकल तो गये घर से पर अभी तक वाकई नहीं पता था कि कहाँ जा रहे हैं...

फ़्यूल मीटर देखा... गाड़ी रिज़र्व में थी... आलस में पिछले कितने दिनों से पेट्रोल नहीं डलवाया था... कहीं दूर जाना भी नहीं हुआ तो जैसे तैसे काम चल रहा था... पर आज जब पता ही नहीं कहा जाना है तो रिस्क नहीं ले सकते ना... तो सबसे पहले पेट्रोल पम्प... पेट्रोल डलवाया... हवा चेक करवाई... जा कहाँ रहे हैं अभी तक नहीं पता... ख़ैर... आगे बढ़े... अब तक कुछ अँधेरा भी होने लगा था... गोमती नदी का पुल पार किया तो सामने पीली सी रौशनी में झांकता सादत अली खां के मकबरे का गुम्बद दिखा... दूर से बड़ा अट्रैक्टिव सा दिखा तो चल पड़े उधर... यूँ तो वो शहर के बीचों बीच है और जाने कितनी ही बार उसके सामने से गुज़रते हैं पर ज़िन्दगी की तेज़ रफ़्तार उधर नज़र डालने का मौका भी नहीं देती... हाँ बचपन में बहुत बार गये हैं वहाँ पर वो बस अब धुंधली सी यादें हैं... पास जा के देखा तो वहाँ रीस्टोरेशन का काम चल रहा था... देख के अच्छा लगा कि पुरातत्व विभाग और सरकार ने कुछ तो सुध ली ऐसी ख़ूबसूरत इमारतों को बचाने की...

फिर जाने क्या आया मन में और गाड़ी पुराने लखनऊ की ओर मोड़ दी... और बस चल पड़े पुराने लखनऊ की सड़कें नापने :) ... शाम से ही हवा बड़ी अच्छी चल रही थी... हवा की ठंडक और नमी बता रही थी कि कुछ लोगों में सुकून बाँट के और उनकी दुआएं ले के आयी है... आस पास ही कहीं कुछ अब्र बरसे हैं शायद ! सड़कों पर भी आज बहुत ज़्यादा भीड़ नहीं थी... आज लखनऊ में नगर पंचायत और नगर निगम के चुनाव थे तो सुबह से ही सब बन्द था... शाम के समय कुछ एक ही दुकाने खुली थी और लोग भी कम ही थे सड़कों पर... शाम का वक़्त, सूनी सड़कें, ठंडी हवा... कुल मिला के सुकून ! हम भी धीरे धीरे, ३० की स्पीड पे चल रहे थे मौसम का आनंद लेते हुए... कहीं जाना ही नहीं था तो कोई जल्दी भी नहीं थी...

बड़े इमामबाड़े का प्रवेश द्वार
थोड़ा आगे जाने पर बड़ा इमामबाड़ा दिखा, इसे आसिफ़ी इमामबाड़ा भी कहते हैं... अँधेरा हो चुका था तो अन्दर जाने का कोई फ़ायदा नहीं था... बाहर से ही थोड़ी बहुत फ़ोटोज़ क्लिक करीं... क्या बुलंद इमारत है... इसके बनने के पीछे कि कहानी भी बड़ी दिलचस्प है... सन १७८३ में इस इलाके में भीषण आकाल पड़ा था... अवध के लोग भले भूखे मर जाएँ पर माँग के खाना उस वक़्त भी उन की शान के खिलाफ़ था... तब नवाब आसिफ़-उद-दौला ने लोगों को रोज़गार देने के लिये इस इमामबाड़े का निर्माण करवाया... आम प्रजा दिन में निर्माण का काम करती और उच्च वर्ग के लोगों से (क्यूँकि वो और कोई काम करने में सक्षम नहीं थे) रात के वक़्त दिन में हुए निर्माण को तुड़वा दिया जाता जिससे की लोगों को ज़्यादा दिन तक काम मिलता रहे... वो अकाल तकरीबन एक दशक से भी अधिक समय तक चला... और तब तक इस ईमारत का निर्माण भी चलता रहा और लोगों को काम मिलता रहा... शायद इसीलिए कहा गया होगा "जिसको ना दे मौला उसको दे आसिफ़-उद-दौला"... वैसे और भी बहुत कुछ है इस इमामबाड़े के बारे में बताने को पर वो फिर कभी...

रूमी दरवाज़ा
बड़े इमामबाड़े के बाहर ही सड़क पर बना है रूमी दरवाज़ा जिसे लखनऊ का प्रवेश द्वार भी कहते हैं और जो सारी दुनिया में लखनऊ की पहचान है... इसका निर्माण भी उसी आकाल के दौर में हुआ था... अपने आप में कारीगरी का एक बेमिसाल नमूना... पर रख रखाव के आभाव में अभी इसकी दशा भी कुछ ठीक नहीं है... आज भी रोज़ाना सैकड़ों गाड़ियाँ इसके नीचे से गुज़रती हैं... उम्मीद है पुरातत्व विभाग जल्द ही इसकी ओर भी ध्यान देगा...

इसी सड़क पर थोड़ा और आगे जाने पर हुसैनाबाद घंटा घर, सतखंडा, छोटा इमामबाड़ा और हुसैनाबाद बाज़ार पड़ते हैं... वहाँ तक पहुँच के देखा तो घड़ी क़रीब पौने आठ बजा रही थी... आगे कुछ ख़ास था भी नहीं देखने को और रात भी हो चुकी थी सो वापस मुड़े... वापस आते हुए क्वालिटी वाल्स का ठेला दिख गया... गाड़ी रोक के एक चॉकबार खायी और नौ बजे तक वापस घर... निकले थे बेमक़सद और देखिये ना दो ही घंटो में कितना सारा सुकून ले कर वापस आये.. वो भी यूँ ही.. बेवजह !

P.S. :- घर आ के पापा को फोटो दिखायीं तो नेक्स्ट ट्रिप उनके साथ प्लान हो गई... अगले जिस भी दिन मौसम अच्छा हुआ :) हाँ, इस बार इन सारी इमारतों को अन्दर से घुमाउंगी... पक्का प्रॉमिस !




हुसैनाबाद बाज़ार
चलो ना भटकें
लफ़ंगे कूचों में
लुच्ची गलियों के
चौक देखें
सुना है वो लोग
चूस कर जिन को वक़्त ने
रास्तें में फेंका था
सब यहीं आ के बस गये हैं
ये छिलके हैं ज़िन्दगी के
इन का अर्क निकालो
कि ज़हर इन का
तुम्हारे जिस्मों में ज़हर पलते हैं और जितने
वो मार देगा
चलो ना भटकें
लफ़ंगे कूचों में


-- गुलज़ार

Sunday, June 3, 2012

तुम्हारी यादों का केलाइडोस्कोप !



कल रात तुम्हारी बेशुमार यादें बिखरी पड़ी थीं बिस्तर पर... के जैसे केलाइडोस्कोप में रंग बिखेरते काँच के छोटे-छोटे रंग-बिरंगे टुकड़े... जिस ओर भी करवट लेती तुम्हारी याद का एक टुकड़ा खिलखिला के बिखर जाता मेरे आस पास... और मैं मुस्कुराती हुई हाथ बढ़ा के जैसे ही छूने को होती उसे तो दूसरी याद आ के पहली वाली का हाथ पकड़ के भाग जाती... तुम्हारी यादें भी ना बिलकुल तुम्हारी तरह ही हैं... बहुत तंग करती हैं मुझे... दुष्ट... शरीर... पर बेहद प्यारी... किसी छोटे बच्चे कि शरारतों जैसी...

ये यादें भी ना बड़ी बातूनी होती हैं... तुम हो कि कुछ बोलते नहीं और वो हैं कि चुप नहीं होतीं एक बार शुरू हो जाती हैं तो... ये तुम्हारी यादें बिलकुल मुझ पर गई हैं :) रात के बीते पहर ऐसे घेर के बैठी थीं मुझे कि गर कोई कमरे में आ जाता उस वक़्त तो चचा ग़ालिब की "छुपाये न बने" और "बताये न बने" वाली स्थिति हो जाती :) हँस लो हँस लो... सबका एक दिन आता है... किसी दिन तुमको आ के घेरेंगी मेरी यादें तो हम भी ऐसे ही हँसेंगे... हुंह !

पता है कल रात हमने ढेर सारी बातें करीं... यादों ने और मैंने... तुम्हारी यादें उन तमाम भूली बिसरी गलियों से होते हुए जाने सपनों के कौन से शहर ले गयीं थीं जहाँ बस हम दोनों थे... और चारों तरफ़ पीले रंग के फूल खिले थे... जैसे सूरज से सारी रौशनी चुरा लाये हों... एक अजीब सी मदहोश कर देने वाली गंध बिखरी थी सारी फिज़ा में... बड़ी जानी पहचानी सी लगी थी वो महक... जैसे जन्मों से उसे जानती हूँ... बहुत सोचा तो याद आया वो जब पहली बार तुम्हें गले लगाया था न, वैसी ही महक बिखरी थी फिज़ा में तब भी...

जानते हो आज सुबह सुबह तुम्हें सपने में देखा... तब से मुस्कुराती हुई घूम रही हूँ सारे घर में... गोया कोई खोयी हुई दौलत मिल गई हो... गहरे हरे रंग कि शर्ट में बड़े प्यारे लग रहे थे तुम... आमतौर पर मुझे वो रंग ज़रा भी नहीं भाता पर जब से तुम्हें देखा है उसमें, मेरा फ़ेवरेट हो गया है... बिलकुल वो ही शर्ट ढूंढ़ के लानी है तुम्हारे लिये... जानती हूँ अब बोलोगे "बिलकुल पागल हो तुम"... बोला ना ? और अब हँस रहे हो... पता था मुझे :)

तुम्हारी सबसे बड़ी ख़ासियत पता है क्या है ? कि तुम बेहद आम हो... तुम में हर वो कमी है जो तुम्हें एक ख़ास इन्सान बनाती है... तुम कोई कैसानोवा नहीं हो... इतने ख़ूबसूरत कि जिसे देखते ही लड़कियां पागल हो जाएँ... तुम मेरी ही तरह एकदम साधारण हो... बेहद सौम्य... और इसीलिए मुझे सबसे ज़्यादा पसंद हो... क्यूँकि तुम्हारी ख़ूबसूरती तुम्हारे दिल में बसती है... मेरी आँखों से देखना कभी ख़ुद को... ख़ुद अपने आप पे दिल ना आ जाये तो मेरा नाम बदल देना... वैसे वो तो तुमने पहले ही बदल दिया है... तुम्हारे मुँह से कभी अपना नाम सुनती हूँ तो कितना पराया सा लगता है ये दुनियावी नाम... सुनो, तुम मुझे मेरे नाम से मत पुकारा करो !


Monday, May 14, 2012

राग पहाड़ी !



बंजारों सा ये मन उड़ते उड़ते जाने कौन शहर किस गली पहुँच जाता है हर रोज़... उसकी परवाज़ पर न तो कोई पहरा है न ही कोई सरहद उसे रोक पायी है कभी... बिना किसी रोक टोक कहीं भी, कभी भी चला जाता है... देखा जाए तो ये मन वो मुसाफ़िर है जिसे किसी मंजिल पर नहीं पहुंचना होता... उसे सिर्फ़ सफ़र करना होता है... भटकना ही जिसकी नियति होती है... वही उसकी प्रकृति भी और वही उसका शौक भी... अनवरत चलते रहने वाले इस सफ़र के दौरान बहुत से लोगों से उसका जुड़ाव होता है... मन मिलता है.. दो पल किसी के साथ ठहरता है, सुस्ताता है और फिर बढ़ चलता है अपने अगले पड़ाव की ओर...

ऐसे ही कुछ नए पुराने चेहरों के बीच से होता हुआ... कुछ जानी पहचानी और कुछ अनजानी गलियों से गुज़रता हुआ... ये मन उड़ चला आज पहाड़ों की ओर... जाने कैसा तो अजीब सा नाता है इन पहाड़ों से मन का... जाने किस जन्म का... जैसे कोई आवाज़ जो आपको पुकारती रहती हो हर पल... जैसे कान्हां की मुरली की धुन और मन राधा हो कर खिंचा चला आता है यहाँ... जैसे किसी भूले बिसरे गीत के बोल जो गूंजा करते हैं देवदार से ढकी इन ख़ूबसूरत वादियों में... जैसे बचपन का बिछड़ा हुआ कोई दोस्त जो लुक्का छिप्पी खेलते हुए दूर निकल आया और किसी चीड़ के पेड़ के पीछे खड़ा आज भी आपका इंतज़ार कर रहा हो कि आप आयें और उसे ढूंढ के जोर से बोलें, "पकड़ लिया... चल अब तेरी बारी..."

कितना सुकून मिलता है यहाँ आ कर... हर सू असीम शान्ति की एक उजली चादर फैली रहती है... ऐसी ख़ामोशी जो अकेले होते हुए भी आपको तन्हाँ महसूस नहीं होने देती... आपको मौका देती है ख़ुद से बात करने का, ख़ुद को समझने का... दिन के उजाले में जो ख़ामोशी आपको आकर्षित करती है, साँझ ढलते ढलते वही ख़ामोशी रहस्यमयी सी हो जाती है... एक अबूझ पहेली सी... देर शाम हुई हलकी बारिश की नमी हवा में महसूस होती है... फ़िज़ा में घुली गीले देवदार और चीड़ों की अनूठी ख़ुश्बू उसे और ज़्यादा रहस्यमयी बना देती है... और इस सब के बीच पेड़ों से छन के आती ठंडी हवा में लिपटी चाँदनी आपको किसी दूसरी ही दुनिया में ले जाती हैं... जहाँ आपका जन्मों का साथी आपका इंतज़ार कर रहा होता है... जुगनुओं की पायल पहने ख़्वाब आपको अपने आग़ोश में ले लेते हैं...


सूरज की पहली किरण के साथ ही पहाड़ों का रूप जैसे बदल सा जाता है... बर्फ़ से ढकी शफ्फाक़ चोटियाँ चाँदी सी चमक उठती हैं... मन एक बार फिर मचल जाता है बच्चों की तरह उस पर फिसलने को... कुछ दूर फिसलता हुआ आता है और फिर अचानक उड़ चलता है बादलों पर सवार होकर जंगल की सैर करने... वहाँ से नीचे देखो तो जहाँ तक नज़र जाती है सिर्फ़ हरा भरा जंगल दिखता है... अंतहीन... जैसे धरती सिमट कर बस इतनी सी हो गयी हो... इस हरियाली के परे कुछ भी नहीं... जंगल में गुलांची भरते हिरन और ख़रगोश दिखते हैं... दूर एक झरना जो बहुत शोर मचाता हुआ काफ़ी ऊँचाई से गिर रहा है... एक झील भी... और उसके एक सिरे पर किसी पहाड़ी देवी का मन्दिर भी... बादल उसी झील में उतरते हैं... जैसे वो भी देवी के दर्शन को आये हों... शाम होने वाली है... झील दियों की टिमटिमाहट से रौशन हो गयी है... मंजीरे और घंटियों की आवाज़ के बीच मन संध्या आरती में खो जाता है... कहता है आज यहीं बस जाओ... यहीं... इसी मन्दिर की सीढ़ियों पर... कल किसी और देस चलेंगे.....!




 

Monday, April 9, 2012

ये लम्हे ये पल हम बरसों याद करेंगे...



ज़िन्दगी चलती जाती है... उम्र बीतती जाती है... अच्छे-बुरे सभी पलों को समेटते हुए... देखा जाये तो कितना लम्बा समय और सोचा जाये तो बस चंद लम्हे जो यादों में ठहरे हैं.....!

आज से ठीक तीन साल पहले ऐसे ही कुछ लम्हों को पन्नों पे संजोने के लिये ये झरोखा खोला था... लिखना ना तब आता था ना अब आता है... बस ज़िन्दगी के इस सफ़र में जो भी कुछ महसूसते गये यहाँ संजोते गये... इकठ्ठा करते गये... यादों का एक पुलिंदा सा बन गया... आज पलट के देखते हैं तो कुछ हँसते खिलखिलाते, कुछ बहुत ही ख़ुशनुमा, कुछ थोड़े नम, तो कुछ थोड़े उदास से लम्हों का ताना-बाना सा लगता है ये... बिलकुल हमारी ज़िन्दगी सा...

आज ये पन्ने पलट के देखती हूँ तो कैसे उँगली पकड़ के किसी और ही दुनिया में ले जाते हैं ये हमें... यादों के इस शहर की हर गली ख़ूबसूरत है... इन गलियों से गुज़रते हुए लगता है जैसे कल ही की तो बात है... किसी मोड़ पे बैठा कोई लम्हा आवाज़ दे के बुलाता है और बिठा लेता है अपने ही पास... और ऐसे बेलगाम दोस्तों के जैसे बातें करते हैं हम दोनों कि लगता है जैसे बरसों के बिछड़े दो दोस्त मिले हों.. तो अगले किसी मोड़ पर कोई उदास सा लम्हा सीली सी आँखों में इंतज़ार लिये हमारी राह तकता है...

आज कहने को कुछ ख़ास नहीं है... सिर्फ़ एक दस्तख़त... कि ये लम्हें, ये यादें... ज़िन्दगी हैं... इस ब्लॉग ने हमें बहुत कुछ सिखाया... आज बस इतना कहना है कि इस झरोखे से झाँकते हुए कुछ बहुत ही प्यारे दोस्त मिले... जो अब ज़िन्दगी का एक अटूट हिस्सा हैं... तो आज की ये पोस्ट सिर्फ़ तुम्हारे लिये दोस्त... क्यूँकि तुम हो तो ये लम्हें हैं, ये यादें हैं और यादों का ये झरोखा है...


Monday, March 19, 2012

कुछ तो पढ़िए कि लोग कहते हैं आज "ग़ालिब" ग़ज़ल सरां न हुआ...



देखना तक़रीर की लज्ज़त कि जो उसने कहा
मैंने ये जाना कि गोया ये भी मेरे दिल में है
-- मिर्ज़ा ग़ालिब

एक वो दौर के जब पूछते थे कि ग़ालिब कौन है और एक ये जब कहते हैं होगा कोई ऐसा भी कि ग़ालिब को ना जाने...

ग़ालिब को जितना भी थोड़ा बहुत जाना-समझा है उसके पीछे सिर्फ़ और सिर्फ़ तीन लोगों का हाथ है... जो हमारे लिये ग़ालिब की रूह, शक्ल और आवाज़ बने... सबसे पहले और अहम वो शख्स जिसका ग़ालिब के प्रति लगाव और उन्हें आम आवाम तक पहुँचाने का जुनून और सपना एक टीवी सीरियल के ज़रिये हम तक पहुँचा... तब जब टीवी का मतलब सिर्फ़ दूरदर्शन हुआ करता था... और उम्र का वो दौर कि उर्दू फ़ारसी तो छोड़िए हिंदी के कठिन शब्द भी ब-मुश्किल ही समझ आते थे... उस दौर में भी वो शख्स जब अपनी पुरकशिश आवाज़ में बल्लीमारां के मोहल्ले की पेचीदा दलीलों की सी गलियों में एक कुरान-ए-सुख़न का सफ़हा खोलता था और कहता था कि यहाँ असद उल्लाह खां "ग़ालिब" का पता मिलता है तो उनकी आवाज़ की उँगली थामे हम भी पहुँच जाते थे क़ासिम की उन अँधेरी गलियों में... गुलज़ार, जी हाँ यही तो हैं वो शख्स जिन्होंने पहली बार ग़ालिब के बारे में जानने की शौक़-ए-तहकीक़ पैदा करी थी मन में...

कौतुहल से भरे हुए जब झाँक के देखा गली क़ासिम-जान में तो लम्बा सा चोगा पहने और लम्बी सी काली टोपी लगाये एक और शख्स नज़र आया... जाने कौन सी भाषा में कुछ बड़बड़ा रहा था और लोग वाह वाह किये जा रहे थे... मिर्ज़ा के शेर (जो उस वक़्त कम से कम हमारी समझ के परे थे) पढ़ते ये शख्स थे नसीरुद्दीन शाह... जिन्होंने ना केवल मिर्ज़ा ग़ालिब का किरदार निभाया इस सीरियल में बल्कि उस किरदार को इस हद तक जिया कि आज भी जब ग़ालिब को याद करते हैं तो नसीर साहब का चेहरा ही ज़हन में उभरता है... एक बार गुलज़ार साब अपने किसी इंटरव्यू में बता रहे थे की नसीर इस कदर खो जाते थे किरदार में कि शूटिंग के बाद उन्हें झकझोर के बाहर निकालना पड़ता था मिर्ज़ा ग़ालिब के किरदार से...

तीसरे शख्स वो जो तमाम दुनिया वालों के लिये ग़ालिब की आवाज़ बने... सुप्रसिद्ध ग़ज़ल गायक जगजीत सिंह जी... जब ग़ज़ल समझ भी नहीं आती थी तो उन्होंने ग़ालिब की आवाज़ बन के हमें ग़ज़लें सुनना सिखाया... बाज़ीचा-ए-अत्फ़ाल है दुनिया मेरे आगे, होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे... दीवानगी का आलम ये कि उस वक़्त १५० रूपये में मिलने वाले इस दो कैसेट के एल्बम को लेने के लिये जाने कितने महीनों का जेबख़र्च बचाया... दीवानगी कुछ और बढ़ी तो अब तक सिर्फ़ कानों को सुकून देती उन ख़ूबसूरत ग़ज़लों को समझने का भी दिल हुआ तो उसका भी जैसे तैसे इंतज़ाम करा... किसी कबाड़ी वाले कि दुकान से ग़ालिब की ग़ज़लों की एक किताब मिल गई... शायद ५ रूपये में... सारे मुश्किल शब्दों के अर्थ दिये हुए थे उसमें.. बस फिर क्या था... कैसेट प्लयेर पर जगजीत सिंह और हाथ में वो किताब... सालों लगे उन ग़ज़लों का मर्म समझने में... आज भी कितना समझी हूँ मालूम नहीं... हाँ प्यार ज़रूर हो गया है ग़ालिब की शायरी और शख्सियत से !

कुछ साल पहले मिर्ज़ा ग़ालिब सीरियल की विडिओ सीडी खरीदी और पूरा सीरियल फिर से देखा, जाने कितनी बार... इस बार शायद सही मायनों में थोड़ा कुछ समझ आया... गुलज़ार के निर्देशन में एक-एक चीज़ की डीटेलिंग इतनी अच्छी है कि बस तारीफ़ के कितने भी शब्द सूरज को दिया दिखाने जैसे होंगे... यकीन मानिये उसे देखते हुए रात के एक दो कब बज जाते थे पता ही नहीं चलता था फिर भी बन्द करने का दिल नहीं होता था... गुलज़ार साब, नसीर साब और जगजीत जी... ग़ालिब से हमारी पहचान कराने के लिये इन तीनों का ही तह-ए-दिल से शुक्रिया...

इतने सालों में अभी उस सीरियल और ग़ालिब की ख़ुमारी से बाहर निकल भी नहीं पाये थे कि उसी कड़ी को आगे बढ़ाते हुए गुलज़ार साब ने एक जादू का पिटारा और थमा दिया... लो सुनो और फिर से मदहोश हो जाओ... इस जादुई पिटारे का नाम है तेरा बयान ग़ालिब... दो दिन से जो नशा चढ़ा है गुलज़ार साब की आवाज़ में पढ़े गये ग़ालिब के ख़ुतूतों का कि बस पूछिये मत... उसपर जगजीत जी की आवाज़ में ग़ालिब कि वो ग़ज़लें जो पिछले एल्बम का हिस्सा नहीं बन पायीं थी... गुलज़ार साब जब ग़ालिब के लिखे ख़ुतूत पढ़ना शुरू करते हैं तो एक बारगी लगता है आप ग़ालिब के ही दौर में पहुँच गये हैं... नसीर ना होते हुए भी जैसे हर पल ज़हन में उभरते रहते हैं... और जगजीत जी कि आवाज़... सब मिल कर ऐसा समां बाँध देते हैं... उफ़! कैसी कैफ़ियत है क्या बताऊँ...

बस अब और कुछ ना कह पाऊँगी... इतना कर सकती हूँ कि एक छोटा सा हिस्सा सुन देती हूँ आपको भी... बाक़ी अगर आपको भी ग़ालिब से प्यार है हमारी तरह तो ये सीरियल और ये एल्बम किसी भी कीमत पर छोड़ नहीं कर सकते आप...

बस बहुत, बहुत, बहुत ढेर सारा शुक्रिया गुलज़ार साब, नसीर साब, जगजीत जी, सलीम आरिफ़ जी और इस सीरियल और इस एल्बम से जुड़े हर उस शख्स का जिन्होंने ग़ालिब को हम तक पहुँचाया और माशा-अल्लाह क्या ख़ूब पहुँचाया !!!





Tuesday, February 14, 2012

मेरा कुछ सामान....!


तुम कहते हो ना हमारा रिश्ता जाने कितने जन्मों से चला आ रहा है और आगे जाने कितने जन्मों तक चलने वाला है... इस जन्म में भी हम यूँ मिले जैसे कभी अलग थे ही नहीं... बस मिले और साथ चलने लगे... बहुत सा प्यार, बहुत सी यादें संजोयीं इस जन्म के छोटे से अपने सफ़र में... ना ना... ये सफ़र अभी ख़त्म नहीं हुआ है... फिर भी जाने क्यूँ दिल कर रहा है आज पलट कर वो सारे पल फिर से जीने का... वो सब फिर से याद करने का... जाने अगले जन्म तक ये सब याद रहे ना रहे... इसलिए सहेज रही हूँ यहाँ... ये सब पढ़ कर अगले जन्म अगर किसी कि याद आये ना, तो समझ लेना वो मैं ही हूँ और बस एक आवाज़ लगा देना चाहे किसी भी नाम से... मैं दौड़ी चली आऊँगी... तुम्हारे पास... तुम्हारा हाथ थामने... 

याद है जान... ये जगह... हाँ यही... जहाँ हम पहली बार मिले थे... और मिलते ही लगा था जाने कब से जानते हैं एक दूजे को... हमारे असीम प्यार और उसके तमाम ख़ूबसूरत पलों को यहीं नख्श कर रही हूँ... अगले जन्म में जब पलट के देखेंगे इन्हें तो मिल कर ख़ूब हँसेंगे... 

एक बार जब हम लॉन्ग ड्राइव पे गये थे... भीनी सर्दियों की एक गुनगुनी दोपहर... तो ओक में भर के ढेर सारी धूप चुरा लायी थी... ऐसे क्या हँस रहे हो... सच्ची बोल रही हूँ बाबा... जानती हूँ... तुम्हें भी नहीं पता... वो सारी गुनगुनाहट हमारे प्यार की यहाँ सहेज रही हूँ... 

वो रूमानी बारिशें भी सहेज दूँ जब घंटों हम पागलों की तरह बीच सड़क पे भीगा करते थे... और वो इन्द्रधनुष भी जो आसमां से तोड़ के तुम मेरे बालों में टांक दिया करते थे... वो सारे मौसम जो तुमसे ख़ूबसूरत थे... हैं... वो सारे सहेज दूँ यहाँ...

वो कैसे हम सारा-सारा दिन बात किया करते थे... बेवजह, बे सिर-पैर की बातें... अच्छा-अच्छा ठीक है... मैं बोलती थी और तुम सुनते थे मुस्कुराते हुए... अपनी वो सारी बक बक भी जमा कर दी है यहाँ... जब कभी बोर होना तो ये पन्ने पलट के देख लेना... मुस्कुराए बिना नहीं रह पाओगे... मेरा दावा है !

याद है वो एक बार जब हम पहाड़ी वाले शिव जी के मंदिर गए थे... और फिर घंटों वहीं सीढ़ियों पर बैठे रहे थे चुपचाप... घने देवदारों से घिरे हुए... घंटियों के मधुर स्वर नाद के बीच... वो सारे मौन वो सारी आवाज़ें भी सहेज रही हूँ यहाँ...

और भी बहुत कुछ सहेजना है... वो सारा रूठना मानना भी... वो बेवजह की तकरारें भी... वो बेवजह उमड़ता प्यार भी... वो मुस्कुराहटें भी... जो सब कुछ बयां कर देतीं थीं बिन बोले... वो सारी जादू भरी झप्पियाँ भी... हाँ, तुम्हारी आँखों की वो चमक भी जिसमें मेरी हँसी छुप जाया करती थी... 

वो जब मैं किचन में कुछ बनाती होती थी और तुम पीछे से आकर मुझे ज़ोर से जकड़ लेते थे बाहों में... कितना ग़ुस्सा हुआ करती थी मैं... जानते हो, नाटक करती थी... सच तो ये है कि बहुत प्यार आता था तुम्हारी उन शरारतों पे... वो सब भी यहाँ जमा करती चलती हूँ... प्यार के इस बहीखाते में...

और वो तीज के मेले में जो तुमने मेहँदी लगाई थी हमारे हाथों में... याद है क्या बनाया था ? मोर... ना ना... देखो बिलकुल भी हँस नहीं रही हूँ... तुम्हारी कसम... सच ! उससे ख़ूबसूरत मेहँदी आजतक नहीं लगाई मैंने... उस मेहँदी की ख़ुश्बू भी यहीं सहेज दी है... 

होंठों का वो प्रथम स्पर्श... शायद इस जन्म का सबसे ख़ूबसूरत एहसास... उस एहसास को बयां नहीं कर सकती... सो उस अनकहे एहसास को जिसे शब्दों में पिरो नहीं सकती... उसे भी यहाँ दर्ज करती चलती हूँ... अगले जन्म में भी इसी शिद्दत से महसूस करुँगी उसे... 

याद है ना जान... हम हनीमून मनाने कहाँ जाने वाले थे... प्यार के देस... वेनिस... पर वेनिस तो डूब रहा है ना... जब मैंने उदास हो के कहा था तो कैसे ज़ोर से हँसे थे तुम... अच्छा तो इसलिए उदास हो गईं तुम कि जाने अगले जन्म तक वेनिस रहे ना रहे... सच में बुरे हो तुम... बहुत बुरे... पर तुमसे अच्छा कभी कोई लगा भी तो नहीं... माना इस जन्म में हम नहीं मिल सकते... ये सपना पूरा नहीं हो सकता हमारा... पर सुनो अगले जन्म में ज़रा जल्दी मिलना... इतना इंतज़ार न करवाना... क्या जाने ख़ुदा को भी हम पर रहम आ जाये... 

साथ बिताये वो अनगिनत पल... वो हँसी... वो मुस्कुराहटें... वो प्यार... वो शरारतें... वो ग़ुस्सा... वो मिठास... वो सब... जो तुमसे है... जिनमें तुम हो... वो सब सहेज रही हूँ यहाँ...

सुनो, अगले जन्म में जब मिलना तो ढेर सारी फ़ुर्सत के साथ मिलना... समय से परे... बिना समय की किसी भी पाबंदी के... और हाँ ये "प्रैक्टिकल" होना... जो कि मुझसे तो ख़ैर कभी नहीं हुआ गया... पर तुम भी इस बनावटी ऐटिट्यूड को, जो कि तुम्हें बिलकुल सूट नहीं करता, जन्म की सरहद के इस तरफ़ ही छोड़ के आना... अगले जन्म मुझे सिर्फ़ तुम चाहिये... "तुम"... सुन रहे हो ना.....!

जन्मों के बन्धन पर कभी भी यकीं ना था मुझे
पर तुमसे मिली तो न जाने क्यूँ लगा कि कुछ है 
कुछ तो ज़रूर है... कोई डोर जिसने बाँध रखा था
कोई नाता... जिसका मस्क कभी मद्धम नहीं पड़ा 

हम पहली बार मिले तो यूँ लगा, मानो 
बरसों पुराने दोस्त बाज़ार में मिले हों
हँस के एक दूसरे को गले लगाया और बोले
"चल, कहीं बैठ के कॉफ़ी पीते हैं"

जैसे दो रूहें भटक रहीं थी क़ायनात में
बस मिलीं और एक नए सफ़र पे बढ़ चलीं 
उसी मोड़ से आगे चलना शुरू करा 
जहाँ अल्पविराम लिया था पिछले जन्म में

शायद ऐसे ही होते हैं जन्मों के बन्धन
रूहानी रिश्ते...

-- ऋचा



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