Friday, July 29, 2011

वो कोयल अब न बोलेंगी...



मन बहुत उदास है आज सुबह से... पिछले कोई आठ दस साल से घर के सामने ख़ाली पड़े प्लॉट में एक नीम का पेड़ उग आया था... एक अजीब सा रिश्ता हो गया था उससे... बेनाम.. बेआवाज़... सिर्फ़ आँखों का रिश्ता.. अजब सा सुकून मिलता था उसे देख कर... जैसे घर का कोई बड़ा बुज़ुर्ग... आते जाते भले उसे ना भी देखूँ तो भी उसके होने का एहसास साथ रहता था... कितने ही दिन उसने माँ के आँचल कि तरह खिड़की से आती धूप को रोका और मेरी नींद नहीं टूटने दी... कितने ही दिन एक प्रेमिका कि तरह चाँद को अपने आग़ोश में छुपा के ज़िद पर अड़ गई आज कहीं नहीं जाने दूँगी तुम्हें.. आज तुम सिर्फ़ मेरे हो... मेरे चाँद... सिर्फ़ मेरे लिये चमकोगे... दुनिया में अमावास होती है तो हो जाये...

एक छोटे बच्चे से व्यस्क होते देखा उसे... बेहद घना और छायादार.. जाने कितने ही पँछियों का आशियाना बना हुआ था... दो कोयल भी रहती थीं उसपर... सारा दिन बोल बोल कर दिमाग़ खाती रहती थीं... वो कोयल अब न बोलेंगी... इन्सान ने एक बार फिर अपना आशियाना बनाने के लिये उनका आशियाना छीन लिया... क्या कोई सरकार उन्हें मुआफ्ज़े में नया आशियाना देगी... वो मासूम तो हम इंसानों कि तरह अपने हक़ के लिये लड़ भी नहीं सकते...

अब तक उस नीम की चीख सुनाई दे रही है... कैसे कराह रहा था बेचारा जब एक एक डाल काट कर उसके तने से अलग करी जा रही थीं... उसकी ख़ाली करी हुई जगह पर कुछ ही दिनों में एक नया कंक्रीट का आशियाना बन जायेगा... नये लोग बस जायेंगे... एक बार फिर वो जगह आबाद हो जायेगी.. हम भी भूल ही जायेंगे उस नीम को कुछ दिनों में... आख़िर एक पेड़ ही तो था बस... यही दुनिया है... डार्विन ने सही कहा था.. "सर्वाइवल ऑफ़ दा फिटेस्ट"... अंत में ताकतवर ही जीतता है... उसे ही हक़ है इस दुनिया में रहने का...

दोस्त अक्सर मुझसे कहते हैं... तुम सोचती बहुत हो... स्टॉप बीइंग सो इमोशनल... बी प्रैक्टिकल यार !!

कभी कभी लगता है वो सही कहते हैं...



हमें पेड़ों की पोशाकों से इतनी सी ख़बर तो मिल ही जाती है
बदलने वाला है मौसम...
नये आवेज़े कानों में लटकते देख कर कोयल ख़बर देती है
बारी आम की आई...!
कि बस अब मौसम-ऐ-गर्मा शुरू होगा
सभी पत्ते गिरा के गुल मोहर जब नंगा हो जाता है गर्मी में
तो ज़र्द-ओ-सुर्ख़, सब्ज़े पर छपी, पोशाक की तैयारी करता है
पता चलता है कि बादल की आमद है!
पहाड़ों से पिघलती बर्फ़ बहती है धुलाने पैर 'पाइन' के
हवाएँ झाड़ के पत्ते उन्हें चमकाने लगती हैं
मगर जब रेंगने लगती है इन्सानों की बस्ती
हरी पगडन्डियों के पाँव जब बाहर निकलते हैं
समझ जाते हैं सारे पेड़, अब कटने की बारी आ रही है
यही बस आख़िरी मौसम है जीने का, इसे जी लो !


-- गुलज़ार

Friday, July 8, 2011

नम यादें... सीला सा मन !



धुन केनी जी के एल्बम ब्रेथलेस से - "इन द रेन"




( आओ आज फिर एक सपना देखते हैं... तुम हो... मैं हूँ... तारों भरा आसमां हो... बादलों में छुप के चाँद भी झाँकता हो... लजाया सा... कुछ कुछ शरमाया सा... पार्श्व में ये धुन हो मद्धम मद्धम बजती हुई... तुम्हारे गले में बाहें डाले, काँधे पे सर रखे, आँखें मूंदे... सारी उम्र थिरकती रहूँ... बस यूँ ही !!! )
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