Monday, November 29, 2010

ख़्वाहिश !



लम्हा लम्हा ज़िन्दगी बीतती जाती है, चंद यादों को सिरजते दिन गुज़रते जाते हैं... अच्छे बुरे, सारे पल, फ़ना होते जाते हैं... अपने पीछे मुट्ठी भर ख़ुशियाँ, ओक भर क़सक और चंद कतरे प्यास छोड़ के... साल दर साल हम यूँ ही जिये जाते हैं... कभी फ़ुर्सत में बैठ के नज़र दौड़ाओ उस गुज़रे हुए कल की तरफ़ तो लगता है... काश, ज़िन्दगी को एक रेत घड़ी की तरह उलट सकते और एक बार फिर से वो सारे बीते हुए पल जी पाते अपने हिसाब से... तो उन्हें कुछ यूँ जीते... अपनी तरह से... वो सब जो तब नहीं कर पाये थे शायद अब कर लेते... थोड़ी ख़ुशियाँ और बटोर लेते... थोड़ी ग़लतियाँ और सुधार लेते... थोड़ी सी मिठास और भर लेते रिश्तों में... ज़िन्दगी में... ये ख़्वाहिशें भी ना... कितनी अजीब होती हैं...

सच... कभी कभी मन होता है काश की एक टाइम मशीन होती जिसमें बैठ के हम समय के इस चक्र को घुमा सकते... जहाँ मर्ज़ी आ जा सकते... अपने हिसाब से... ये वक़्त हमारा ग़ुलाम होता... हमारे हिसाब से चलता... सोचिये अगर ऐसा हो जाये तो... ज़िन्दगी को एक रिवाइंड और फॉरवर्ड बटन लग जाये तो... हां, एक पॉज़ बटन भी... सोच कर ही दिल ख़ुश हो जाता है... कितने सारे पल हैं ना जो फिर से जी सकेंगे... कितने लम्हों को फ्रीज़ कर सकेंगे... अच्छा बताइए वो कौन से पल हैं जिन्हें आप दोबारा जीना चाहेंगे... जिन्हें आप बदलना चाहेंगे :) हम्म... ढेर सारे !! है ना ?

अब फिलहाल तो ऐसी कोई टाइम मशीन आयी नहीं... तो सोच के ही ख़ुश हो लेते हैं :) कभी आयी तो आजमाएंगे ज़रूर....


कभी कभी सोचती हूँ
जो दे दे मौका
इक बार ज़िन्दगी
उसे फिर से जीने का

तो ज़िन्दगी का हाथ थाम
ले जाऊँ उसे पीछे
बहुत पीछे...

उस मोड़ तक
जहाँ से तुम्हारे साथ
तय कर सकूँ ये सफ़र

और बस चलती रहूँ
तुम्हारा हाथ थामे
ज़िन्दगी की आढ़ी-तिरछी
पगडंडियों पर...

-- ऋचा

Saturday, November 13, 2010

स्पर्श


मौन आँखों में चंद ख़्वाब
और होंठों पर दुआ लिये
हाँथों से टटोल-टटोल के
तुम्हारा हर क़तरा महसूसते हुए
हर्फ़-हर्फ़, सफ़्हा-सफ़्हा
रोज़ यूँ पढ़ती हूँ तुम्हें
गोया
तुम हो इक क़ुरान
और मैं बे-नूर आबिदा कोई
देख नहीं सकती तुम्हें, लेकिन
चूम के महसूस करती हूँ
तुम्हारी पेशानी की आयतें कभी
और कभी ताबीज़ सा तुझे
गले में बाँध लेती हूँ...

-- ऋचा

Wednesday, November 10, 2010

दस्तक गुलाबी मौसम की...


जाड़ों की नर्म धूप और आँगन में लेट कर
आँखों पे खींच कर तेरे आँचल के साये को
औंधे पड़े रहें कभी करवट लिये हुए
दिल ढूंढता है फिर वो ही फ़ुर्सत के रात दिन...
-- गुलज़ार

ओस की बूंदों को बींधती सुबह की धूप आजकल अच्छी लगने लगी है... शाम की हवाएँ फिर से सिहराने लगी हैं... गुलाबी सर्दियाँ एक बार फिर दस्तक देने को हैं... ये सर्दियाँ बचपन से ही हमारी फ़ेवरेट रही हैं... कुछ है इन सर्दियों के मौसम में जो बहुत "फैसिनेट" करता आया है हमेशा से ही... वो सुबह के कोहरे से झाँकती पीले गुलाब की नर्म पंखुड़ियाँ... हरी-हरी घास पर चादर से बिछे सफ़ेद नारंगी हरसिंगार के फूल... और उस पर चमकीले मोतियों सी सजीं ओस की शफ्फाफ़ बूँदें... सब कुछ बेहद ख़ूबसूरत लगता है... एकदम "मिस्टिकल" सा... आत्मा तक ठंडक पहुंचाता हुआ...

सुबह-सुबह शॉल लपेटे हुए ओस से सजी घास पर नंगे पैर टहलना और हवा का हौले से आपके गालों को चूमते हुए गुज़रना और फिर आपके बालों में ग़ुम हो जाना... बड़ा प्यारा सा एहसास भर देते हैं आपके भीतर... मीठा-मीठा... कुछ रूमानी सा... सर्दियों की सुबह नीम के पेड़ से छन के आती धूप की महक भी कुछ ऐसी मीठी हो जाती है मानो माँ ने अभी-अभी नन्हें को नहला के जॉनसन्स बेबी पावडर लगाया हो... बिलकुल नर्म मुलायम भीनी सी महक... आपको एकदम तरोताज़ा करती हुई...

सर्दियों के साथ बड़ी सारी यादें जुड़ी हैं बचपन की... जैसे दोपहर को छत पे बैठ कर कॉलोनी की सभी महिलाओं (आंटियों) का मूंगफली खाते हुए गप्पे मारना और हम बच्चों का सारी दोपहर धमा चौकड़ी करना... या फिर शाम को दादी का अलाव जलाना और हम सब भाई बहनों का उसके चारों ओर बैठ कर दादी से भूत और जिन्न वाली कहानी सुनना और फिर डर के मारे वहीं दुबके रहना अम्मा की गोद में... और हाँ उस अलाव में आलू भून के खाना हरी धनिया के नमक के साथ :)

कुछ आदतें हैं जो बचपन से आजतक वैसी की वैसी हैं... जैसे आज भी ऑफिस से वापस जा कर एक ही रजाई में घुस के बैठना भाई के साथ और फिर एक दूसरे को ठन्डे-ठन्डे पैर छुआ के लड़ना... "मम्मी देख लो इसे... ठन्डे पैर लगा रहा है... ओफ़्फ़ो सारी रजाई क्या तुम ही ओढ़ोगे... देखो हमारी तरफ़ से हवा आ रही है... तुम अपनी रजाई उठा के लाओ... नहीं ये मेरी है तुम लाओ जा के अपनी..." कितनी मज़ेदार लड़ाई होती है ना... सोच के ही हँसी आ रही है... :) उस प्यारी सी नोक झोंक का मौसम एक बार फिर आ रहा है...

सर्दियों के बारे में एक चीज़ और हमें बेहद पसंद है... वो है उसकी रहस्यमयिता... धुँध में ढकी छुपी सड़कें कितनी रहस्यमयी सी मालूम होती हैं... ना आगाज़ का पता ना अंजाम का... जाने कहाँ से आती हैं... ना जाने कहाँ को जाना है... बस चले जाती हैं... अनजान मुसाफ़िरों की तरह... हाँ ऐसी धुँध भरी सर्दियों की शाम जब लैम्प-पोस्ट की लाइट बड़ी मुश्किल से धुँध को चीरती हुई धुंधली सी रौशनी बिखेर रही हो... साँस लो तो मुँह से भी धुआँ निकले... ऐसे में हमें आइसक्रीम खाना बेहद पसंद है :)


सब्ज़ पत्ते धूप की ये आग जब पी जाएँगे
उजले फर के कोट पहने हल्के जाड़े आएँगे

गीले-गीले मंदिरों में बाल खोले देवियाँ
सोचती हैं उनके सूरज देवता कब आएँगे

सुर्ख नीले चाँद-तारे दौड़ते हैं बर्फ़ पर
कल हमारी तरह ये भी धुंध में खो जाएँगे

दिन में दफ़्तर की कलम,
मिल की मशीनें सब हैं हम
रात आएगी तो पलकों पे सितारे आएँगे

दिल के इन बागी फ़रिश्तों को सड़क पर जाने दो
बच गए तो शाम तक घर लौटकर आ जाएँगे

-- बशीर बद्र

Wednesday, November 3, 2010

इस दिवाली आओ कुछ नया करें...


दिवाली की रौनक फिज़ाओं में घुलने लगी है... वो मिठाइयाँ, वो पटाखे, वो दिये, वो रौशनी, वो सारी ख़ुशियाँ बस दस्तख़ देने ही वाली हैं... भाई-बहनों, दोस्तों-रिश्तेदारों के साथ मिल के वो सारा-सारा दिन हँसी-ठिठोली, वो मौज-मस्ती, वो धमा-चौकड़ी, वो हो-हल्ला... सच हमारे त्योहारों की बात ही अलग होती है... हमारी संस्कृति की यही चमक दमक... ये रौनक... बरसों से लोगों की इसकी ओर आकर्षित करती आयी है...

आजकल तो बाजारों की रौनक भी बस देखते ही बनती है... दुकानें तो लगता है जैसे आपको रिझाने के लिये ब्यूटी पार्लर से सज-धज के आयी हैं... इतनी भीड़ भाड़ के बीच तो लगता है ये महंगाई का रोना जो रोज़ न्यूज़ चैनल्स और अखबारों की सुर्खियाँ में रहता है मात्र दिखावा है... अगर महंगाई सच में बढ़ी है, तो खरीदारों की ये भीड़ क्यूँ और कैसे... सच तो ये है की महंगाई और व्यावसायिकता तो बढ़ी ही है साथ ही साथ लोगों की "बाईंग कपैसिटी" भी बढ़ी है... और दिखावा भी, नहीं थोड़ा सोफिस्टीकेटेड तरीके से कहें तो सो कॉल्ड "सोशल स्टेटस" मेन्टेन करने की चाह भी...

बिना सोचे समझे हम त्यौहार के नाम पर नये कपड़ों, मिठाई और पटाखों पर हज़ारों रूपये मिनटों में फूँक देते हैं... उस पर ये दलील की फिर कमाते किस लिये हैं ? ... त्योहारों पर ख़ुशी मानना बिलकुल भी ग़लत नहीं है पर बेवजह सिर्फ़ दिखावे के लिये इतने पैसे ख़र्च करना कहाँ तक सही है ? ... और अगर ख़र्च ही करने हैं तो आइये इस साल कुछ नया कर के देखें ? आइये इस दिवाली किसी की ज़िन्दगी में उजाला करते हैं... किसी महरूम का सहारा बन के देखते हैं... किसी के होंठों पर एक मुस्कान खिला के देखते हैं... किसी के सपनों में रंग भर के देखते हैं... उस ख़ुशी को महसूस कर के देखते हैं जो खोखली नहीं होती...

ये हज़ारों रुपये जो हम बस यूँ ही फूँक देते हैं, किसी बच्चे की एक साल की फीस हो सकती है, किसी के पढ़ने की किताबें हो सकती हैं, किसी की स्कूल यूनिफ़ॉर्म हो सकती है, वो बच्चे जो बड़े होकर कुछ बनना चाहते हैं पढ़ लिख कर... वो बच्चे जो पढ़ना तो चाहते हैं पर उनके पास इतने पैसे नहीं हैं की अपने इस सपने में रंग भर सकें... हमारी एक छोटी सी मदद उनके सपनों के साकार होने का एक ज़रिया हो सकती है... वैसे भी मदद कभी छोटी बड़ी नहीं होती... सागर की हर बूँद उतनी ही अनमोल होती है... किसी की ज़िन्दगी में एक पल की ख़ुशी भी ला पायें हम तो शायद ज़िन्दगी सार्थक हो जाये...

अपने लिये और अपनों के लिये तो सभी करते हैं पर उनके लिये करना जिन्हें आप जानते तक नहीं और जिनसे इंसानियत के सिवा आपका और कोई रिश्ता नहीं, बड़ी ही अनोखी ख़ुशी दे जाता है... कभी महसूस करी है आपने ? ऐसी ही एक संस्था है "स्माइल इंडिया फाउंडेशन" जो ऐसे बेसहारा और महरूम बच्चों के लिये काम करती है... उनकी शिक्षा और स्वास्थ का ध्यान रखती है... शायद आपको याद हो पिछले साल स्माइल इंडिया फाउंडेशन ने एन.डी.टी.वी. के साथ मिल के "छूने दो आसमां" नाम से एक पहल करी थी, ऐसे ही बच्चों की शिक्षा के लिये... उनका वो प्रयास दिल को छू गया और हम भी उस मुहिम का छोटा सा हिस्सा बन गये... चाहें तो आप भी अपना सहयोग दे सकते हैं... सोचिये अगर हम सब अपनी तरफ़ से थोड़ा थोड़ा सा भी सहयोग दे दें तो कितने बच्चों का भविष्य बन सकता है... तो क्या इस दिवाली आप कुछ नया करना चाहेंगे ?


इस दिवाली
आओ कुछ नया करें...

अमावास की
स्याह रात के आँचल में
विश्वास का
चमकीला चाँद उगायें

नैराश्य को दूर कर
आशाओं की रंगोली सजायें
आकांक्षाओं के बंदनवार को
भरोसे के धागे से बाँध
प्यार की गाँठ लगायें

कुछ सूनी आँखों में
विश्वास की लौ जलायें
कुछ डगमगाते क़दमों को
सहारा दे के गिरने से बचायें

घी की जगह
उम्मीद के दिये जलायें
कुछ उदास होंठों पे
फिर से मुस्कान खिलायें

रोते हुए बच्चों को हँसाएँ
बूढ़ी आँखों की रौशनी बन जाएँ
मिल के साथ फिर से हँसे खिलखिलाएँ
उनके बोझल जहाँ को फिर से जगमगायें

इस दिवाली
आओ कुछ नया करें !!!

-- ऋचा




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