Wednesday, January 27, 2010

सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा...

कल हमने अपना ६१वाँ गणतंत्र दिवस मनाया... स्कूल-कॉलेज, सरकारी दफ्तरों और कुछ प्राइवेट कार्यालयों में भी तिरंगा फ़हराया गया... नेताओं ने बड़े बड़े भाषण दिये... अमन, शांति और सौहार्द बनाए रखने की नसीहत दी गयी... बीते सालों की कुछ उपलब्धियों को गिनाया गया... कुछ देशभक्ति के गाने बजाये गए... कुछ SMSs भेजे गए... मिठाई बटी और बस हो गया समारोह पूरा या यूँ कहिये शान्ति से, बिना किसी अड़चन और परेशानी के एक काम निपट गया और बाकी का दिन आराम करते हुए एक आम छुट्टी की तरह बिता दिया गया... अब फिर अगले १५ अगस्त या २ अक्टूबर को ये देशभक्ति जागेगी... एक बार फिर पुराने SMSs ढूंढ़ के भेजे जायेंगे... एक बार फिर पुराने देशभक्ति के गानों के कैसेट झाड़-पोछ के निकाले जायेंगे और एक बार फिर सारा दिन हर तरफ से एक ही आवाज़ सुनाई देगी "हम बुलबुलें हैं इसकी ये गुल्सितां हमारा...सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा"
कभी सोचा आख़िर क्यूँ हमारी ये देशभक्ति इन चंद ख़ास मौकों पर ही जागती है... क्या हो अगर सीमा पे खड़े उन तमाम सिपाहियों की देशभक्ति भी इन चंद ख़ास मौकों पर ही जागे... वो जो दिन-रात, एक से बढ़कर एक जटिल और विषम परिस्थितियों में भी वहाँ सजग होकर सीमा की रखवाली करते हैं, सिर्फ़ इसलिए की उनका देश और देशवासी तमाम बाहरी दुश्मनों से महफूज़ रहें...
खैर! हम भी कहाँ बेकार की बातों में उलझ गए... ये तो उनका काम है... और वो अपना काम पूरी इमानदारी से करते हैं... पर हम क्या करते हैं... तमाम बाहरी दुश्मनों से तो वो हमें बचा लेंगे पर हमारे देश के असली दुश्मन... "हम"... हमसे कैसे बचायेंगे इसे... सोच में पड़ गए ना ? अभी कल ही तो तिरंगा फ़हराया था... कल ही तो मोबाइल का कालर ट्यून बदल के फ़िल्मी गाने की जगह देशभक्ति का गीत लगाया था "ऐ वतन ऐ वतन हमको तेरी कसम तेरी राहों में जाँ तक लुटा जायेंगे"... हम भला अपने देश के दुश्मन कैसे हो सकते हैं...
तो सुनिए... पढ़ाई करेंगे यहाँ हिन्दुस्तान में इस उम्मीद के साथ की किसी "MNC" में नौकरी लग जाये और विदेश में जा के सेटेल हो जाएँ तो बस लाइफ बन जाये... चार लोगों के बीच में खड़े होंगे तो अंग्रेजी में ही बात करेंगे भले बोलनी आये या ना आये... क्यूँ... क्यूँकि हिंदी, अपनी मातृभाषा, बोलने में तो शर्म आती है... कहीं किसी ने हिंदी में बात करते सुन लिया तो क्या कहेगा.... और कोई हिंदी में बात कर रहा हो तो ऐसे देखेंगे जैसे बहुत ही "low standard" इंसान हो... जिसे हक़ ही नहीं आज के ही समाज में रहने का... अच्छा ज़रा याद कर के बताइये आपमें से " क ख ग" कितने लोगों को पूरा याद है ? और "A B C" ? अब तो भरोसा हुआ हमारी बात का :-)
और बतायें... अच्छा चलिए आप ही बताइये कितना जानते हैं अपने देश के बारे में ? बोर्रा गुफाओं का नाम सुना है कभी आपने ? नहीं ? अच्छा सिरोही जिले के बारे में तो ज़रूर जानते होंगे ? वो भी नहीं ? ह्म्म्म... अच्छा चलिए ये ही बता दीजिये पूरब का स्विज़रलैंड किसे कहते हैं... ये भी नहीं पता ? अजी ये अमेरिका, यूरोप, ऑस्ट्रेलिया, सिंगापुर के बारे में जानने के लिये तो बहुत बार गूगल सर्च करी होगी कभी अपने देश के बारे में भी जानिये... बहुत कुछ है यहाँ भी जानने और समझने के लिये...
हम कब ये बात समझेंगे देशभक्ति ये चंद ख़ास दिनों पर बजाये जाने वाले फ़िल्मी गानों से नहीं आती... वो हमारी सोच से आती है, हमारे कर्मों में झलकती है... अपने देश के प्रति हमारे नज़रिए से प्रतिबिंबित होती है... देशभक्ति ज़िन्दगी भर का समर्पण होता है... एक जज़्बा होता है... ज़िन्दगी जीने का तरीका होता है...
क्यूँ "Green Card Holder" बनने की ख़्वाहिश हर समय हमारे दिल में रहती है... क्यूँ "NRI" कहलाने में हमें गर्व महसूस होता है... भले ही अनपढ़ हो, भले ही ख़ूबसूरत ना हो पर "माँ" माँ होती है, उसे हम किसी ख़ूबसूरत, पढ़ी लिखी महिला से बदल नहीं लेते... और ना ही लज्जित होते हैं उसे "माँ" कहने में... फिर क्यूँ हमें अपने हिन्दुस्तानी होने पर गर्व नहीं होता...

अब और क्या कहूँ हमें अपने हिन्दुस्तानी होने पर गर्व है... हिंदी भाषी होने पर गर्व है... जय हिंद... जय हिंद की सेना !!

जाते जाते आपको दुष्यंत कुमार जी की चंद पंक्तियों के साथ छोड़े जा रही हूँ...


मेरी प्रगति या अगति का
यह मापदण्ड बदलो तुम,
जुए के पत्ते सा
मैं अभी अनिश्चित हूँ ।
मुझ पर हर ओर से चोटें पड़ रही हैं,
कोपलें उग रही हैं,
पत्तियाँ झड़ रही हैं,
मैं नया बनने के लिए खराद पर चढ़ रहा हूँ,
लड़ता हुआ
नयी राह गढ़ता हुआ आगे बढ़ रहा हूँ ।

अगर इस लड़ाई में मेरी साँसें उखड़ गईं,
मेरे बाज़ू टूट गए,
मेरे चरणों में आंधियों के समूह ठहर गए,
मेरे अधरों पर तरंगाकुल संगीत जम गया,
या मेरे माथे पर शर्म की लकीरें खिंच गईं,
तो मुझे पराजित मत मानना,
समझना –
तब और भी बड़े पैमाने पर
मेरे हृदय में असन्तोष उबल रहा होगा,
मेरी उम्मीदों के सैनिकों की पराजित पंक्तियाँ
एक बार और
शक्ति आज़माने को
धूल में खो जाने या कुछ हो जाने को
मचल रही होंगी ।
एक और अवसर की प्रतीक्षा में
मन की क़न्दीलें जल रही होंगी ।

ये जो फफोले तलुओं मे दीख रहे हैं
ये मुझको उकसाते हैं ।
पिण्डलियों की उभरी हुई नसें
मुझ पर व्यंग्य करती हैं ।
मुँह पर पड़ी हुई यौवन की झुर्रियाँ
क़सम देती हैं ।
कुछ हो अब, तय है –
मुझको आशंकाओं पर क़ाबू पाना है,
पत्थरों के सीने में
प्रतिध्वनि जगाते हुए
परिचित उन राहों में एक बार
विजय-गीत गाते हुए जाना है –
जिनमें मैं हार चुका हूँ ।

मेरी प्रगति या अगति का
यह मापदण्ड बदलो तुम
मैं अभी अनिश्चित हूँ ।

-- दुष्यंत कुमार





Sunday, January 17, 2010

क्यूँकि समय नहीं है...


कल शाम यूँ ही रिमोट लिये हुए टी.वी. चैनल्स सर्फ़ कर रहे थे... अचानक नज़र पड़ी किसी चैनल पर "दिल से" आ रही थी... शाहरुख़ खान की उन चंद पिक्चरों में से एक जो हमें बहुत पसंद है... पता नहीं क्यूँ... इस पिक्चर में एक सीन है जहाँ शाहरुख़ मनीषा से शादी के लिये पूछता है और वो मना कर देती है, उसका जवाब होता है की वो शादी नहीं कर सकती क्यूँकि उसके पास "समय नहीं है..."
जब पहली बार देखा था तो ये डायलॉग सुन के हँसी आई थी... पर कल सुना तो सोच में पड़ गए... "समय"... आज के आधुनिक मशीनी युग और मसरूफ़ ज़िन्दगी के परिपेक्ष में शायद सबसे दुर्लभ संसाधन... पेट्रोल, पेड़ और पानी से भी ज़्यादा तेज़ी से विलुप्त होता हुआ... आज इंसान के पास सब कुछ है बस "समय" नहीं है... सारे ऐश-ओ-आराम हैं बस उनका सुख उठाने का समय नहीं हैं... मम्मी पापा के पास बच्चों के लिये समय नहीं है, बच्चों के पास मम्मी पापा के लिये समय नहीं है... कभी दादा-दादी, नाना-नानी के लिये समय नहीं है... कभी खेलने के लिये तो कभी दोस्तों के लिये समय नहीं है...
इस व्यस्त ज़िन्दगी में आज दूसरों के लिये क्या इंसान के पास ख़ुद के लिये भी समय नहीं है... कभी सोचो तो हँसी आती है... ना तो आज हमारे पास खाने का समय है और ना सोने का... आज इंसान इतना व्यस्त है की ख़ुद के स्वास्थ पर ध्यान देने के लिये भी समय नहीं है... समय क्यूँ नहीं है... क्यूँकि काम का बोझ बहुत है... वो क्यूँ है... क्यूँकि बहुत से पैसे कमाने हैं... भविष्य के लिये बचत करनी है... निवेश करना है... "हेल्थ इंश्योरेंस" करवाना है... "मेडी क्लेम पौलिसी" लेनी है... अब भला बताइये आज स्वास्थ पे ध्यान नहीं देना है और कल के लिये इंश्योरेंस करवाना है... अब अगर आज ख़ुद के स्वास्थ के लिये थोड़ा सा समय निकाल लें... थोड़ा ख़ुद पे ध्यान दें... तो कल शायद ये "हेल्थ इंश्योरेंस" की ज़रुरत ही ना पड़े... पर ये सब सोचने के लिये भी शायद समय नहीं है... हम तो बस आँख बन्द कर के इस अंधी दौड़ में दौड़ते जा रहे हैं... पता नहीं किस लक्ष्य को हासिल करने के लिये...
क्या ऑफिस और क्या घर... जिधर भी देखो तो हर कोई हर समय तनाव में ही नज़र आता है... किस बात का इतना तनाव है आख़िर... क्या चिंता है... इतना तनाव ले कर, इतना व्यस्त रह कर आख़िर क्या साबित करना चाहते हैं हम ? और किसको ? ऐसा भी क्या है की हम ज़िन्दगी जीना ही भूल गए हैं... ख़ुश रहना भूल गए हैं... इससे बेहतर तो हम कल थे जब शायद जेब में चंद रूपये ही हुआ करते थे पर दिल में ख़ुशी थी... एक उत्साह था... ज़िन्दगी जीने की उमंग थी... तो फिर आज ऐसा क्यूँ है कि सब होते हुए भी हम ख़ुश नहीं हैं...
शायद इसकी वजह भी हम ख़ुद है... हमने ख़ुद ही अपने लिये इतने ऊँचे मानक बना लिये हैं... इतने बड़े मानदण्ड की बस उनको हासिल करने की जद्दोजहद में ज़िन्दगी कब हमारी मुट्ठी से रेत की तरह फिसल जाती है पता ही नहीं चलता... शायद आज से कुछ ३० या ४० साल बाद... अगर तब तक ज़िन्दा रहे तो... या सोचने के काबिल रहे तो... शायद सोचेंगे कि हमने क्या खो दिया... और तब शायद इस बात का अफ़सोस होगा की ज़िन्दगी तो हमने बस यूँ ही गँवा दी... काश की कभी दिल से जिये होते... ख़ुद के लिये... अपनों के लिये... अपनी और उनकी खुशियों के लिये... तब शायद तमाम सुख सुविधायें होंगी, थोड़ा समय भी होगा, पर शायद ज़िन्दगी जीने की उमंग नहीं होगी, वो लोग नहीं होंगे... तब शायद सिर्फ़ काश कह के ही काम चलाना होगा... कहीं सुना था कभी "आता है लेकिन ये वक़्त बड़ा ही बे-वक़्त है, जब तक ये आता है सब कुछ बदल जाता है..."
अब भी समय है... आइये इस भागते वक़्त के पहिये को कुछ देर रोक दें... एक दिन के लिये ही सही... कुछ पल के लिये ही सही... आइये एक बार दिल से जियें... ताकि कल काश ना कहना पड़े...


आओ पकड़ें घड़ी की सुइयाँ
थाम लें उड़ते वक़्त की डोर
क़ैद करें कुछ लम्हों को
जी लें दिल से "लाइफ वंस मोर"

किसी काबिल जादूगर के जैसे
घुमायें अपनी जादुई छड़ी
पकड़ के वक़्त की दौड़ती नब्ज़
डालें उसकी आँखों में आँखें

वशीभूत करके इसे फिर
अपने ही इशारों पे चलायें
माना बहुत बलवान है ये
पर कम तो कुछ हम भी नहीं

क्यूँ चलें फिर इसके पीछे
क्यूँ ना अपने संग चलायें
भूल के सारे शिकवे गिले
आओ इससे हाथ मिलायें

-- ऋचा

Wednesday, January 6, 2010

यादों की पुरवाई...



सबसे पहले तो आप सभी को नए साल की हार्दिक शुभकामनाएँ... ये साल आप सब के लिये बहुत शुभ हो और ढेरों खुशियाँ ले के आये और आपके अपनों का साथ हमेशा बना रहे यही दुआ है !!!
वक़्त कितनी जल्दी भागता है ना... कहने को बस अभी तो ये नया साल आया है और कब ये ६ दिन पुराना भी हो गया पता ही नहीं चला... आज बैठे बैठे यूँ ही ज़िन्दगी की किताब के कुछ वर्क पलटे तो कुछ धुंधले से चेहरे ज़हन में आये... बचपन के कुछ दोस्त और उनके साथ की गयी ढेरों शरारतें... गर्मियों की दोपहर में वो स्कूल से लौटना और घर के सामने वाले ख़ाली मैदान में लगे शहतूत के पेड़ से तोड़ तोड़ के कच्चे-पक्के शहतूत खाना और फिर पूरी स्कूल यूनिफ़ॉर्म में उसके दाग़ लग जाने पर माँ से डाट खाना :-) सच ! क्या दिन थे वो...
फिर कुछ और वर्क पलटे और कुछ और चेहरे सामने आये... स्कूल-कॉलेज में साथ में पढ़ने वाले वो तमाम साथी... वो दोस्त जिनके बिना शायद कल एक पल भी नहीं कटता था और आज उनमें से जाने कितने दोस्त ऐसे हैं जिनसे अब कोई संपर्क तक नहीं है... पता नहीं कहाँ होंगे... कैसे होंगे... क्या उन्हें भी ऐसे ही कभी हमारी याद आती होगी... क्या पता...
ज़िन्दगी में कुछ बनने की ख़्वाहिश, कुछ कर दिखाने की चाह... नाम, पैसा, दौलत, शोहरत सब कुछ पाने की इक्षा में हम सब कितना आगे बढ़ जाते हैं... इतना की पीछे मुड़ के देखने का भी समय नहीं होता... ये सब पाने की चाह रखना ग़लत है ये नहीं कहूँगी... एक अच्छी ख़ुशहाल ज़िन्दगी के लिये ये सब भी बहुत ज़रूरी है... लेकिन इस सबको हासिल करने की जद्दोजहद में अपने साथियों को, अपने रिश्तों को भूल जाना ये ग़लत है... सफलता के उस अर्श पर अगर आपके अपने ही साथ ना हुए तो ख़ुशियाँ अधूरी ही रह जायेंगी... बेमानी... बेमतलब...
समय के साथ हम तो आगे बढ़ जाते हैं पर पीछे रह जाती है कुछ यादें... अपनों के साथ बिताये कुछ ख़ूबसूरत लम्हों की... हालांकि दोस्त तो सभी ख़ास होते हैं लेकिन हर किसी से आपकी दोस्ती उतनी गहरी उतनी ख़ास नहीं होती... बाकी सबका हालचाल मिलता रहे बस, दिल उतने में ही ख़ुश रहता है पर जब आपका कोई ख़ास दोस्त जिसके बिना शायद आप कुछ पल भी नहीं बिताते, वो दोस्त कुछ समय के लिये भी आपसे दूर जाता है तो उसकी कमी अखरती है... लगता है ज़िन्दगी में कुछ अधूरापन है... जैसे आपका कोई बहुत महत्वपूर्ण हिस्सा आपसे अलग हो गया है...

ऐसे ही किसी दोस्त को याद कर के गुलज़ार साब ने ये नज़्म लिखी होगी शायद...



मैं कुछ-कुछ भूलता जाता हूँ अब तुझको
तेरा चेहरा भी धुँधलाने लगा है अब तख़य्युल में
बदलने लग गया है अब वह सुबह शाम का मामूल
जिसमें तुझसे मिलने का भी एक मामूल शामिल था

तेरे ख़त आते रहते थे
तो मुझको याद रहते थे
तेरी आवाज़ के सुर भी
तेरी आवाज़, को काग़ज़ पे रखके
मैंने चाहा था कि पिन कर लूँ
कि जैसे तितलियों के पर लगा लेता है कोई अपनी एलबम में

तेरा बे को दबा कर बात करना
"वाओ" पर होठों का छल्ला गोल होकर घूम जाता था
बहुत दिन हो गए देखा नहीं
ना ख़त मिला कोई
बहुत दिन हो गए सच्ची
तेरी आवाज़ की बौछार में भीगा नहीं हूँ मैं

-- गुलज़ार
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