Monday, July 20, 2009

सादा कैन्वस पे उभरते हैं बहुत से मंज़र...


kuchh dino pehle gulzar sa'ab ki ek bahot hi khoobsoorat nazm padhi jo unhone abhi haal hi me likhi hai... bahot hi khoobsoorti se unhone jeevan ke tamaam rangon ko apne nazm roopi canvas pe utaara hai... isme jeevan ka har rang hai prakriti ka adbhut saundarya hai, baalman ki nishchhalta hai, ek boodhi bhikhaarin ki bebasi hai aur ek nayi naveli dulhan ki alhadta bhi hai... padhte padhte nazm ke ye tamaam rang aapke chehre par bhi ubhar aate hain... kabhi aapke honthon pe ek meethi si muskan chhod jaate hain to kabhi dil me ek tees si uthti hai... aap bhi padhiye aur jeevan ke in tamaam rango me saraabor ho jaaiye...




एक सनसेट है, पके फल की तरह
पिलपिला रिसता, रसीला सूरज
चुसकियाँ लेता हूँ हर शाम लबों पे रखकर
तुबके गिरते हैं मेरे कपड़ों पे आ कर उसके

एक इमली के घने पेड़ के नीचे
स्कूल से भागा हुआ बोर-सा बच्चा
जिस को टीचर नहीं अच्छे लगते
इक गिलहरी को पकड़ के
अपनी तस्वीरें किताबों की दिखा कर खुश है

मेरे कैन्वस ही के ऊपर से गुज़रती है सड़क इक
एक पहिया भी नज़र आता है टाँगे का मुझे
कटकटाता हुआ एक सिरा चाबुक का
घोड़े की नालों से उड़ती हुई चिनगारियों से
सादा कैन्वस पे कई नुक्ते बिखरते हैं धुएँ के।

कोढ़ की मारी हुई बुढ़िया है इक गिरजे के बाहर
भीख का प्याला सजाए हुए, गल्ले की तरह,
माँगती रहती है ख़ैरात 'खुदा नाम' पे सब से।
जब दुआ होती है गिरजे में तो बाहर आकर
बैठ जाता है खुदा गल्ले पे, ये कहते हुए
आज कल मंदा है, इस नाम की बिक्री कम है।

'क़ादियाँ' कस्बे की पत्थर से बनी गलियों में
दुल्हनें 'अलते' लगे पाँव से जब
काले पत्थर पे क़दम रखती हुई चलती हैं
हर क़दम आग के गुल बूटे से बन जाते हैं!
देर तक चौखटों पे बैठे, कुँवारे लड़के
सेंकते रहते हैं आँखों के पपोटे उनसे।

नीम का पेड़ है इक-
नीम के नीचे कुआँ है।
डोल टकराता हुआ उठता है जब गहरे कुएँ से
तो बुजुर्गों की तरह गहरा कुआँ बोलता है
ऊँ छपक छपक अनलहक़
ऊँ छपक छपक अनलहक।

-- गुलज़ार
( ४ मई २००९ )

( Painting by : Belgian Linen )

Sunday, July 5, 2009

एक सौ सोलह चाँद की रातें...



bachpan me jab daadi chaand me rehne waali budhiya ki kahaniyan sunati thi to wo budhiya sach me chaand me dikhaayi diya karti thi aur man hota tha chaand pe jakar usse milen... kya aapne kabhi haath badha kar us chamakte hue chaand ho pakadne ki koshish nahi ki hai... humne to bachpan me bahot baar kari hai :-) aaj humare andar ka bachcha bada to ho gaya hai par bachpan se le kar aaj tak chaand ke liye aakarshan khatm nahi hua... aaj bhi purnima ke chaand ko dekh kar man khil uthta hai... aapne dekha hai kabhi? kitna adbhut lagta hai na...
chaand shayaron ka bhi bahot hi pasandida mauzuu raha hai... gulzar sa'ab ne to chaand par jaane kitne hi geet, gazal, nazm aur triveniyan likhi hain... par har ek ka andaaz ek dusre se ekdum juda... padh kar aashcharya hota hai ki ek hi chaand ko dekhne ke itne mukhtalif nazariye bhi ho sakhte hain... aaiye aapko ru-ba-ru karwate hain chaand par likhi gulzar sa'ab ki kuchh aisi nazmon aur triveniyon se jo humen behad pasand hain...

आज फिर चाँद की पेशानी से उठता है धुआँ
आज फिर महकी हुई रात में जलना होगा

आज फिर सीने में उलझी हुई वज़नी साँसें
फट के बस टूट ही जाएँगी, बिखर जाएँगी
आज फिर जागते गुज़रेगी तेरे ख्वाब में रात

आज फिर चाँद की पेशानी से उठता धुआँ

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आप की ख़ातिर अगर हम लूट भी ले आसमां
क्या मिलेगा चंद चमकीले से शीशे तोड़ के

चाँद चुभ जायेगा ऊँगली में तो खून आ जायेगा !


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रात के पेड़ पे कल ही देखा था
चाँद, बस, पक के गिरने वाला था

सूरज आया था, ज़रा उसकी तलाशी लेना !




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चाँद के माथे पर बचपन की चोट के दाग़ नज़र आते हैं
रोड़े, पत्थर और गुल्लों से दिन भर खेला करता था

बहुत कहा आवारा उल्काओं की संगत ठीक नहीं !


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सितारे चाँद की कश्ती में रात लाती है
सहर के आने से पहले ही सब बिक भी जाते हैं

बहुत ही अच्छा है व्यापार इन दिनों शब का !




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मां ने जिस चांद सी दुल्हन की दुआ दी थी मुझे
आज की रात वह फ़ुटपाथ से देखा मैंने

रात भर रोटी नज़र आया है वो चांद मुझे !

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कुछ ऐसी एहतियात से निकला चाँद फिर
जैसे अँधेरी रात में खिड़की पे आओ तुम

क्या चाँद और ज़मीन में भी कुछ खिंचाव है !






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जब-जब पतझड़ में पेड़ों से
पीले पीले पत्ते,
मेरे लॉन में आ कर गिरते हैं,
रात को छत पर जा कर मैं
आकाश को ताकता रहता हूँ
लगता है कमज़ोर सा पीला चाँद भी शायद
पीपल के सूखे पत्ते सा,
लहराता लहराता मेरे लॉन में आ कर उतरेगा !

-- गुलज़ार




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